प्रस्तुत लेख में वैदिक युग में शिक्षा के उद्देश्य एवं वेदकालीन शिक्षा पद्धति पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला गया है। इस लेख का अध्ययन आप शिक्षा शास्त्र के अंतर्गत कर सकते हैं। इस लेख को विशेषकर शिक्षक बनने के लिए चलाए जा रहे विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रम के अंतर्गत अध्ययन किया जाता है।
अतः इस लेख का अध्ययन बी.टी.सी, B.Ed, D.EL.ED, जैसे पाठ्यक्रम के विद्यार्थी कर सकते हैं। इस लेख को काफी सरल बनाने का प्रयत्न किया गया है जिससे विद्यार्थियों को समझने में सुविधा हो सके।
वैदिक युग में शिक्षा के उद्देश्य
भारत आदिकाल से विश्व गुरु रहा है। यहां की शिक्षा का पूरे विश्व में कोई सानी नहीं था, जिसके कारण दूर से दूर देश से भारत में आकर विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण किया करते थे। वेदकालीन शिक्षा मौखिक पद्धति पर आधारित थी। उस समय मुद्रण कला का विकास नहीं हुआ था। मौखिक शिक्षा विधि से ही गुरु अपने शिष्य तक ज्ञान का हस्तांतरण किया करता था। मौखिक विधि दीर्घकालिक थी, जबकि ताल पत्र आदि पर तैयार की गई प्रतियां अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रह पाती थी।
अतः प्रमुख रूप से मौखिक विधि ही प्रचलन में थी।
शिक्षकों ने उस समय की सभी पुस्तकों का स्वाध्याय कर उन्हें कंठस्थ कर लिया था।
इस संग्रहित ज्ञान को वह अपने शिष्यों को निरंतर अभ्यास से कंठस्थ करवाते थे। इस विधि के माध्यम से शिक्षक अपनी बौद्धिक संपदा शिष्यों तक पहुंचाया करते थे। वेद कालीन शिक्षा में उच्चारण और शुद्धता पर विशेष बल दिया जाता था। शिक्षक स्वयं शब्दों का शुद्ध उच्चारण किया करते थे और अपने शिष्यों को भी शुद्ध उच्चारण के लिए प्रेरित करते थे। इस शुद्धता के लिए उन्होंने मंत्रों की व्याख्या भी की थी, साथ ही मंत्रों को गायन के साथ भी जोड़ा था। इस विधि से विद्यार्थी सुविधाजनक रूप से मंत्रों को याद कर सके।
प्रातः तथा सायं समय विद्यार्थियों से मंत्रोचार करवाया जाता था इस विधि से उनके उच्चारण में शुद्धता आती थी। मुद्रण कला का विकास ना होने के कारण वेद कालीन शिक्षा पद्धति मौखिक विधि पर ही आधारित थी। वेदकालीन शिक्षा की प्रमुख भाषा संस्कृत मानी गई है। संस्कृत के शब्द बेहद कठिन हुआ करते थे इसलिए उन्हें बारीकी से उच्चारण के साथ अभ्यास किया जाता था। बार-बार दोहराने अर्थात रटने पर बल दिया जाता था, जिससे निरंतर अभ्यास में रहते हुए विद्यार्थी मंत्रों की शुद्धता को जानते हुए आत्मसात कर पाते थे।
वेदकालीन शिक्षा की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि शिक्षक और शिष्य के बीच व्यक्तिगत रूप से शिक्षा के आदान-प्रदान का कार्यक्रम हुआ करता था। गुरु अपने शिष्य को व्यक्तिगत रूप से पढ़ाता था। उसके संपूर्ण जीवन सेवा भली भांति परिचित रहा करते थे। इस शिक्षा की प्रक्रिया में गुरु तथा शिष्य दोनों ही सक्रिय भूमिका में रहा करते थे। गुरु जहां अपने बौद्धिक संपदा का हस्तांतरण शिष्य तक किया करते थे। वही शिष्य अपनी समस्या तथा शंका आदि का समाधान गुरु के सानिध्य में किया करते थे। गुरु अपने शिष्यों की समस्याओं को समझ कर उनका भली-भांति निवारण किया करते थे।
इस परंपरा में गुरु अपने शिष्य की परीक्षा लेने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रश्न पूछा करते थे।
इससे वह विश्वस्त हुआ करते थे कि उन्होंने जो अपनी शिक्षा शिष्य तक पहुंचाई क्या वह पूर्ण रुप से शिष्य तक पहुंच रही है। कमियों को जांच कर उन्हें दूर किया जाता था और शिक्षा को शुद्ध रूप से अपने शिष्य तक पहुंचाया जाता था। वेद कालीन में शिक्षण की कुछ प्रचलित प्रणालियां थी – भाषण विधि, व्याख्यान विधि, प्रश्नोत्तर विधि, सूक्ति विधि, अन्योक्ति विधि, कथा विधि तथा कण्ठस्तीकरण की विधि।
इसके माध्यम से गुरु अपने शिष्य की परीक्षा लिया करते थे।
गुरु अपने शिष्य को दिशा दिखाया करते थे, उसके शंका का समाधान किया करते थे और विशेष रूप से शिष्य के भीतर की उत्सुकता, जानने की इच्छा को जागृत किया करते थे। प्रेरित होकर शिष्य अपना ज्ञान अर्जन किया करते थे। इसके माध्यम से गुरु अपने शिष्य के भीतर की अन्वेषण प्रवृत्ति को जागृत किया करते थे। उनके रुचि के विषय में गहन अध्ययन के लिए प्रेरित किया करते थे। गुरु अपने शिष्य को सामान्य ज्ञान देकर विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने के लिए भी प्रेरित करते थे। तत्कालीन शिक्षा का आरंभ विद्यार्थी के उपनयन संस्कार के पश्चात हुआ करता था।
तदोपरांत एक दूसरा संस्कार मेधाजनन नाम से हुआ करता था।
इस संस्कार के माध्यम से ऐसी प्रार्थना की जाती थी कि छात्र ऐसी बुद्धि प्राप्त करें जो गायों की भांति आकर्षक और सूर्य की भांति प्रखर हो और उसकी सृजनात्मक बुद्धि जागृत हो। इसके बाद विद्यार्थी का गुरुकुल में शिक्षा प्रारंभ हुआ करता था, जहां रहकर वह वाद-विवाद की शक्ति को विकसित करता था। शास्त्रार्थ करने में निपुण हुआ करता था तथा किसी भी समस्या का समाधान करने के लिए वह स्वयं तत्पर हो सके ऐसा ऐसा अभ्यास करता था।
परीक्षाएं उपाधियां तथा पत्रोपाधियाँ Examination Degrees and Certificates
वेदकालीन शिक्षा पद्धति में आज की भांति अर्धवार्षिक तथा वार्षिक परीक्षा का आयोजन नहीं किया जाता था। गुरु अपने शिष्यों की परीक्षा प्रतिदिन लिया करते थे। जो पाठ अपने विद्यार्थियों को पढ़ाते अगले दिन पूर्ण संतुष्टि होने पर ही दूसरे पाठ का आरंभ करते थे। इस कारण गुरु अपने शिष्य का मूल्यांकन नियमित प्रतिदिन के आधार पर किया करते थे। कभी-कभी वह पूर्व में दिए हुए शिक्षा का मूल्यांकन करने के लिए विद्वानों तथा शिष्यों के बीच वाद-विवाद तथा शास्त्रार्थ करवाया करते थे। इस वाद- विवाद तथा शास्त्रार्थ से शिष्य की योग्यता का पूर्ण ज्ञान हो जाया करता था। अध्ययन समाप्ति के उपरांत परीक्षा का कोई विधान नहीं था।
मुख्य रूप से देखें तो वेद काल में किसी प्रकार की परीक्षा तथा उपाधियां या परिपत्र आदि नहीं दिए जाते थे। आधुनिक काल में जैसी व्यवस्था है वैसी व्यवस्था वेद काल में नहीं थी। वेद काल की शिक्षा व्यक्ति के जीवन पर आधारित थी। उसके आदर्श का विकास करना, चरित्र निर्माण करना तथा समाज के लिए विद्यार्थियों को तैयार करना था। आधुनिक शिक्षा का उद्देश्य केवल आर्थिक रूप से मजबूत होना है। आज की शिक्षा में परीक्षा, उपाधियां तथा डिग्री दी जाती है जो उसके व्यवसाय तथा नौकरी के लिए आवश्यक होती है। दोनों शिक्षा के बीच मुख्य अंतर यह था कि पूर्व समय में ज्ञानार्जन और बौद्धिक विरासत को सुरक्षित रखने के लिए शिक्षा की पूरी व्यवस्था थी।
जबकि आधुनिक समय में शिक्षा की व्यवस्था का उद्देश्य आर्थिक उन्नति से जुड़ गया है।
समावर्तन संस्कार Samavartan Sanskar
जैसा कि हम जानते हैं वेदकालीन शिक्षा प्रक्रिया में गुरु शिष्य का परस्पर सहयोग होता था। शिक्षा की प्रक्रिया में दोनों सक्रिय भूमिका में रहते थे। शिष्य अपने गुरु को सब कुछ मानता था। गुरु उनके लिए माता-पिता, ईश्वर हुआ करते थे। वही गुरु अपने शिष्य का अभिभावक तथा शिक्षक होने के नाते उसे भावी जीवन की शिक्षा दिया करते थे। जीवन में सभी प्रकार की परिस्थितियों के लिए तैयार करना शिक्षक का मुख्य उद्देश्य हुआ करता था। विद्यार्थी किस प्रकार शिक्षा का सदुपयोग परिवार, समाज तथा राष्ट्र के लिए करे, अपने समस्त कर्तव्यों का उचित पालन करे, गुरु योजनाबद्ध रूप से शिक्षा विद्यार्थी को दिया करते थे।
शिक्षा समाप्ति के उपरांत विशेषकर गुरु अपने शिष्य को उपदेश दिया करते थे। यह उपदेश विद्यार्थी के लिए दीक्षांत के रूप में हुआ करता था। इस दीक्षांत उपदेश का सम्बन्ध – सत्य, धर्म, स्वाध्याय, गुरु, माता, पिता, अतिथि देवो भव, राष्ट्र, सेवा कार्य, चरित्र आदि से संबंधित हुआ करते थे। जब विद्यार्थी गुरुकुल से अपने घर लौट आते तब भी वह अपने गुरु से जुड़े रहते थे। किसी भी समस्या का समाधान या परामर्श के लिए वह गुरुकुल जाते। शिक्षक भी अपने शिष्य के निवास स्थान जाकर अपने शिक्षा के धरातल पर प्रयोग को जांचा करते थे।
वह सुनिश्चित किया करते थे कि गुरुकुल में जो विद्यार्थी को शिक्षा दी गई उसका प्रयोग वह किस प्रकार कर रहा है। इस प्रकार गुरु तथा शिष्य सदैव के लिए एक-दूसरे से जुड़ जाया करते थे। समावर्तन संस्कार को साधारण शब्दों में समझें तो ब्रह्मचर्य जीवन का अंत तथा गृहस्थ जीवन का आरंभ बिंदु होता है।
यहां से शिष्य अपने गृहस्थ जीवन में शामिल हो जाता है।
अनुशासन Discipline
वेदकालीन शिक्षा में अनुशासन का बेहद महत्व था। गुरु उन शिष्यों का चयन किया करते थे जो अनुशासन प्रिय हो, सत्यवादी हो, ज्ञान ग्रहण की क्षमता रखते हो। गुरुकुल में प्रत्येक दिन को व्यतीत करने का एक अनुशासन बनाया गया था। प्रत्येक शिष्य नियमित दिनचर्या के अनुसार तय समय पर अपने सभी कार्यों को संपन्न करते थे।
प्रातः उठने के उपरांत तथा रात्रि विश्राम से पूर्व की दिनचर्या का पालन प्रत्येक शिष्य को करना पड़ता था। जिसमें शरीर को स्वच्छ रखना, सादा रहन-सहन, भोजन की व्यवस्था, गुरुकुल की साफ-सफाई, पशुओं की सेवा आदि प्रमुख थी। इस दिनचर्या में बंधकर शिष्य अपना सर्वांगीण विकास किया करते थे। शारीरिक तथा आध्यात्मिक रूप से स्वयं को संपन्न किया करते थे। गुरुकुल की अनुशासन व्यवस्था में रहकर वह कम समय में त्याग, तपस्या, विनय, सात्विक आदि गुणों को ग्रहण कर लेते थे।
आध्यात्मिक अनुशासन Spiritual Discipline
तत्कालीन शिक्षा में शारीरिक अनुशासन के समान आध्यात्मिक अनुशासन का भी महत्व था। शरीर को जिस प्रकार अनुशासन में बांधा गया था उसी प्रकार विद्यार्थी को आध्यात्मिक अनुशासन में भी बांधा गया। वेदकालीन शिक्षा मुख्य रूप से आध्यात्मिकता पर आधारित थी। शिक्षा आरंभ करने से पूर्व व्यक्ति को अध्यात्म में रुचि होना आवश्यक था।
शिष्य की चयन प्रक्रिया में इसका विशेष ध्यान दिया जाता था।
अध्यात्म का संबंध – स्वयं को जानना, गुरु की सेवा, अपने इंद्रियों को वशीभूत करना, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मान आदि से दूर रहना प्रमुख था। विद्यार्थी इस अनुशासन में रहते हुए स्वयं सत्य का साथ देते हुए सदाचार के मार्ग पर चलता था। मान, अपमान आदि का मोह त्यागकर वह मन, वचन, और कर्म से स्वयं को ईश्वर के साथ जोड़ने का प्रयत्न करता था।
स्त्री शिक्षा Education of Women
आज तक कई विद्वानों में मतभेद है कि वेद कालीन शिक्षा स्त्रियों के लिए थी अथवा नहीं। जबकि वेद कालीन शिक्षा में स्त्री शिक्षा का भी व्यापक प्रबंध था। तत्कालीन शिक्षा प्राप्त करने के लिए कन्याओं को उपनयन संस्कार के बाद शिक्षा आरंभ करने की व्यवस्था थी। इनके लिए कन्या छात्रावास का भी प्रबंध हुआ करता था। कन्याओं की शिक्षा के लिए शिक्षिकाएं नियुक्त किए गए थे।
कन्याओं को गृहस्थ जीवन त्याग कर शिक्षा प्राप्त करने की अनुमति थी।
वह वेदों का अध्ययन, यज्ञ, हवन आदि किया करती थी।
कितने ही आचार्यों की कन्याओं ने अपने पिता से वेद, उपनिषद, यज्ञ, हवन, संगीत आदि की शिक्षा प्राप्त की। आचार्यों की कन्या अपने गृह स्थान पर रहकर भी शिक्षा ग्रहण करती थी। जिसमें गार्गी, देवयानी, मैत्रयी प्रमुख हैं। अन्य उदाहरणों में हम लोपामुद्रा, घोषा, आपाला, उर्वशी आदि को देखते हैं जिन्होंने शिक्षा ग्रहण कर विदुषी की उपाधि धारण की थी। इतना ही नहीं इन विदुषियों ने बड़े-बड़े विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ भी किया था। यह शिक्षा कन्याओं को गृहस्थ जीवन सुखमय बनाने तथा अपने जीवन को एक उद्देश्य तथा लक्ष्य देने के लिए हुआ करता था।
इस शिक्षा में धार्मिक साहित्य, संगीत, नृत्य, ललित कला आदि प्रमुख थे।
पोषण में विश्वास Belief in Nurture
वेदकालीन शिक्षा शास्त्री प्रकृति के बेहद करीब थे। उनका मानना था बालक के भीतर की शक्ति को प्रकृति के सानिध्य में रहकर यह बाहर निकाली जा सकता है। प्रकृति शिक्षा का सर्वोत्कृष्ट माध्यम है। प्रकृतिवादी यह मानते हैं कि बालक प्रकृति के माध्यम से स्वयं शिक्षा ग्रहण कर सकता है। तत्कालीन शिक्षा वंशानुक्रम पर आधारित थी, उस समय तक शिक्षा का अधिकार सीमित जातियों तक थी। किंतु विद्वानों ने वंशानुक्रम पर अधिक विश्वास ना करते हुए पोषण तथा प्रशिक्षण पर विश्वास किया। उनका स्पष्ट मानना था कि प्रशिक्षण के माध्यम से किसी भी सर्वोत्कृष्ट कार्य को किया जा सकता है।
इंद्र भी अपने प्रशिक्षण तथा पोषण के माध्यम से ही देवताओं में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करता है। वेदकालीन शिक्षा शास्त्री पोषण तथा प्रशिक्षण में जितना विश्वास करते थे, कालांतर में वैसा विश्वास नहीं है। आज के कुछ विद्वानों का स्पष्ट मानना है कि एक उच्च तथा सभ्य परिवार का बालक ही कुछ तथा श्रेष्ठ शिक्षा प्राप्त कर सकता है। उन्होंने उदाहरण देकर स्पष्ट करने का प्रयत्न भी किया। उनका मानना है कि एक बांस के पौधे को चाहे कितना भी खाद पानी दिया जाए, वह चंदन का वृक्ष नहीं बन सकता।
इसी प्रकार व्यक्ति की क्षमता उसे प्रकृति तथा वंश के आधार पर प्राप्त होती है।
वैदिक कालीन शिक्षा का पाठ्यक्रम
तत्कालीन शिक्षा गुरुकुल पर आधारित थी, जिसमें गुरु तथा शिष्य, शिक्षा के क्रियाकलाप में सक्रिय भूमिका में रहा करते थे। गुरु अपने शिष्य का चयन काफी सावधानी से किया करते थे। शिष्य का चयन करने में उसके गुण विवेक आदि को विशेष महत्व दिया जाता था। तत्कालीन शिक्षा में शारीरिक, मानसिक आध्यात्मिकता का मिश्रण था। गुरु अपने शिष्य को शरीर, मन, कर्म तथा अध्यात्म से इतना मजबूत बनाता था कि वह समाज में विपरीत परिस्थितियों का सामना मुस्कुराते हुए कर सकता था।
शिक्षा का संपूर्ण क्रियाकलाप गुरुकुल में संपन्न होता था। शिक्षा का आदान-प्रदान मौखिक रूप से संपन्न होता था क्योंकि उस समय मुद्रण कला का विकास नहीं हुआ था। तालपत्र पर लिखे हुए लेख अधिक समय तक टिक नहीं पाते थे, इसलिए संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था मौखिक पर आधारित थी। गुरु अपने शिष्य को नए पाठ का अध्ययन कराते थे और प्रतिदिन उस पाठ की परीक्षा भी लिया करते थे।
तत्कालीन शिक्षा में वाद-विवाद, शास्त्रार्थ आदि का विशेष महत्व था।
इस माध्यम से विद्यार्थी की योग्यता सिद्ध होती थी।
वेदकालीन शिक्षा का विषय –
मंत्र उच्चारण,
शास्त्रों का अध्ययन,
कला,
साहित्य,
दर्शन,
आयुर्वेद,
समाजशास्त्र आदि हुआ करते थे।
जिसका मुख्य उद्देश्य बालक को भावी जीवन के लिए तैयार करना था।
इस पाठ्यक्रम के अनुसार गुरु तथा शिष्य का संबंध संपूर्ण जीवन के लिए होता था। गुरु तथा शिष्य एक-दूसरे से जुड़े रहते थे। शिष्य अपनी समस्या तथा शंका समाधान, परामर्श आदि के लिए गुरु के पास जाता था। वही गुरु अपने शिक्षा को जांचने के लिए विद्यार्थी के नगर तथा गृह स्थान पर जाते थे। इस माध्यम से गुरु तथा शिष्य संपूर्ण जीवन के लिए आपस में जुड़ जाते थे।
वैदिक शिक्षा की वर्तमान में प्रासंगिकता
वैदिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बालक सर्वांगीण विकास था। उसे अपने जीवन में विभिन्न परिस्थितियों के लिए तैयार करना था। इस शिक्षा के माध्यम से बालक शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक रूप से संपन्न बनता था।
- वर्तमान समय में शिक्षा का स्वरूप परिवर्तित हो गया है।
- आज शिक्षा का उद्देश्य व्यवसाय तथा आर्थिक से जुड़ गया है।
- जबकि वैदिक कालीन शिक्षा में किसी प्रकार की परीक्षा तथा उपाधियां प्रदान नहीं की जाती थी।
- वर्तमान समय में परीक्षा तथा उपाधियों का विशेष महत्व हो गया है।
- इसके माध्यम से विद्यार्थी अपने व्यवसाय तथा नौकरी की तलाश करता है।
वैदिक शिक्षा के विभिन्न विषयों को चुनकर वर्तमान शिक्षा में शामिल किया जाना चाहिए, जिससे विद्यार्थी अपने जीवन में शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक महत्व को जानते हुए स्वयं को मजबूत बना सके।इस माध्यम से वर्तमान जीवन में स्वयं को मजबूती से स्थापित कर सके।
आज के विद्यार्थियों में तनाव आदि की समस्या को भलीभांति देखा जा सकता है।
इस समस्या का समाधान वैदिक शिक्षा के विषयों से हो सकता है।
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निष्कर्ष
वेदकालीन शिक्षा मैं गुरु तथा शिष्य दोनों सक्रिय भूमिका में रहा करते थे। शिक्षा पूर्ण रूप से व्यवस्थित तथा अनुशासन में बंधी थी। विद्यार्थी को गुरुकुल में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गुरु के सानिध्य में शिक्षा प्रदान की जाती थी। तत्कालीन शिक्षा बालक तथा कन्या दोनों के लिए थी। दोनों के लिए अलग-अलग छात्रावास का भी प्रावधान था। कन्याओं के अध्ययन में शिक्षिकाएं सक्रिय थी।
तत्कालीन शिक्षा वर्तमान के शिक्षा से बिल्कुल विपरीत थी।
वेदकाल की शिक्षा में परीक्षा, उपाधि आदि का प्रावधान नहीं था, जबकि वर्तमान शिक्षा में परीक्षा तथा उपाधि का विशेष महत्व है। वेदकाल में छात्रों के सर्वांगीण विकास पर विशेष बल दिया जाता था। उसे जीवन की सभी परिस्थितियों का सामना करने की सीख दी जाती थी। वह अपने शिक्षा का समाज की उन्नति में प्रयोग करें ऐसा प्रावधान था। वर्तमान शिक्षा में इस प्रक्रिया का विशेष अभाव है। आशा है उपरोक्त लेख आपको पसंद आया हो, संबंधित विषय पर अपनी राय रखने के लिए तथा प्रश्न पूछने के लिए कमेंट बॉक्स में लिखें।
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