Hindi notes on parsi rangmanch ke tatva with full details.
पारसी रंगमंच के तत्व parsi rangmanch ke tatva
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में देश में एक नई रंगमंचिय कला पारसी थियेटर का विकास हुआ , किंतु अधिकांश विद्वान यह भी मानते हैं कि इस शैली का विकास शेक्शपीरियन थिएटर से प्रभावित होकर इंग्लैंड में हुआ। यह रंगमंचिय विधा लगभग आधी सदी तक उत्तर भारत में जन चेतना का संचार करने का एक सशक्त माध्यम रही है। पारसी रंगमंच कला के विशिष्ट तत्व निम्नलिखित है –
पर्दे , संगीत , वस्त्र , आभूषण , संवाद।
- अभिनेताओं द्वारा मुख – मुद्राओं तथा हाव-भाव का व्यापक प्रदर्शन।
- नाटक के निश्चित कथ्यात्मक स्वरूप।
- बोलचाल की भाषा का समावेश तथा संवाद की एक खास शैली।
पारसी थियेटर शैली ने तीसरे दशक में राजस्थान के रंग – कर्मियों पर पूरा प्रभाव डाला। कहा जाता है कि सर्वप्रथम बरेली के जमींदार साहब की थिएटर कंपनी राजस्थान आई थी , इसके पश्चात स्वर्गीय लक्ष्मण दास ने जोधपुर में मारवाड़ नाटक संस्था की स्थापना की तथा जानकी स्वयंवर , हरिशचंद , भक्त परमल जैसे कई नाटक किए।
महबूब हसन नामक व्यक्ति ने आगा हश्र कश्मीरी ने लिखे फारसी शैली के अनेक नाटक का मंचन किया। जयपुर के अलवर में मंचित किए। व्यापक प्रभाव को जमाने वाले इन नाटकों को खोलने की दिशा में यह महबूब हसन का व्यक्तिगत प्रयास था। जिसे किसी राजा – महाराजा तथा सामंतों का आर्थिक संरक्षण भी ना मिला।
इसी कारण उसे इन नाटकों का टिकट लगाकर प्रदर्शित करना पड़ा। उन दिनों कुछ राज्यों में राजाओं द्वारा बनवाए गए अनेक अपने थिएटर हुआ करते थे , तथा उन्हें संचालित करने के लिए अलग विभाग होते थे।
एक समय ऐसा था जब पारसी थियेटर ने रंगमंच पर अपना पूर्ण अधिकार ही कायम कर लिया था और यह वर्चस्व उस समय तक लगातार बना रहा जब तक कि उसका स्थान सिनेमा ने नहीं ले लिया। राजस्थान में बाबू मणिकलाल तथा कन्हैया लाल पवार पारसी थियेटर के विख्यात रंगकर्मी व निर्देशक थे।
बाबूमानिक लाल ने इस रंगमंच को नई दिशा प्रदान की तथा कई कलाकारों को उन्होंने अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित करने में सहयोग किया। मानिकलाल ने इस परंपरा का निर्वाह करते हुए दी वार थीएट्रिकल कंपनी की स्थापना सन 1933 तक सक्रिय कर इस कला को ऊंचाई तक पहुंचाया।
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