शिक्षक का महत्व, शिष्य गुरु सम्बन्ध – Importance of teacher

इस लेख में आप शिक्षक के महत्व को जानेंगे। प्राचीन समय में उनके सम्मान , गुरु-शिष्य संबंध , शिक्षा पद्धति आदि का विस्तारपूर्वक अध्ययन करेंगे।

किसी भी बालक के जीवन में शिक्षक का महत्त्व रहता है। बालक का प्रथम गुरु माता-पिता को माना जाता है।  तदुपरांत उसके जीवन में संस्कार तथा जीवन जीने की शिक्षा गुरु के माध्यम से प्राप्त होता है। यह गुरु या शिक्षक बालक को एक नया आकार देता है। गुरु के द्वारा दिया गया ज्ञान के कारण वह अपने सांसारिक तथा आध्यात्मिक जीवन को सुचारू रूप से चला पाने में सक्षम होता है।

शिक्षक का महत्व (Importance of Teacher)

वैदिक काल में गुरु का सम्मान था , वह समाज में पूजनीय माने जाते थे। माना जाता था गुरु का ज्ञान पाना ईश्वर को प्राप्त करने का साधन है। गुरु का ज्ञान उस समय बेहद दुर्लभ था , कोई पात्र व्यक्ति ही गुरु के ज्ञान को प्राप्त कर सकता था।

इसलिए समाज में गुरु का विशेष स्थान था।

गुरु अपने ज्ञान का हस्तांतरण अपने शिष्यों के माध्यम से किया करते थे।

उनका ज्ञान एक जगह स्थिर ना रहे इसके लिए वह अपने विद्यार्थियों के माध्यम से अपने ज्ञान का विस्तार किया करता था। विद्यार्थी , गुरु के द्वारा दिए गए ज्ञान को अपनाकर अपना जीवन संवारने तथा समाज के कल्याण हेतु किया करते थे

वैदिक काल में शिक्षा मौखिक रूप से दी जाती थी।

वैदिक काल में लेखन कला का प्रचलन नहीं था , कोई ऐसा साधन नहीं था जिसके माध्यम से लेख को चिरकाल तक सुरक्षित रखा जाए। इसलिए मौखिक पद्धति को इस युग में अपनाया गया।

गुरु अपने शिष्य को शिक्षा मौखिक रूप से देता था।

शिष्य अपने गुरु के द्वारा दिए गए ज्ञान को श्रवण करता और अपने जीवन में आत्मसात करता।

गुरु द्वारा दी गई शिक्षा केवल विद्यार्थी जीवन के लिए नहीं अपितु व संपूर्ण जीवन के लिए हुआ करती थी।

चाहे वह वैवाहिक हो या ब्रह्मचर्य जीवन।

शिक्षा की समाप्ति के बाद गुरु अपने शिष्य के घर भी जाकर अपने शिक्षा के उपयोग को जांचा परखा करता था। गुरु यह भी सुनिश्चित करता था , उसके द्वारा दी गई शिक्षा विद्यार्थी के जीवन में किस स्तर तक काम आ रही है।

गुरु के द्वारा दी गई शिक्षा कितनी फलीभूत है तथा और कितने सुधार की आवश्यकता है।

गुरु-शिष्य निरंतर जीवन भर मिला करते थे दोनों के बीच तारतम्यता स्थापित रहा करती थी।

वैदिक काल में गुरु की पूजा की जाती थी।

उसको ब्रह्मा का रूप माना जाता था।

गुरु वह व्यक्ति बन सकता था जिसे ब्रह्म ज्ञान प्राप्त हो चुका हो।

जो अपने शिष्य को मार्गदर्शन करा सके और दार्शनिक भाव जिस में कूट-कूट कर भरा हो। जिसका चरित्र उत्तम हो , जो अनुकरणीय हो , वही गुरु बनने योग्य हुआ करता था।  ऐसा गुरु समाज में मिल पाना बेहद कठिन था जो अपने विद्यार्थी के भीतर प्रकाश उत्पन्न कर सके उसके जीवन को अपने ज्ञान से प्रकाशित कर सके।

शिक्षक के सम्मान का कारण

वैदिक काल में शिक्षकों का बेहद आदर सम्मान था। समाज में वह पूजनीय व्यक्ति हुआ करते थे  किसी भी समस्या के लिए समाज अपने गुरु के पास जाकर उसका निराकरण किया करते थे।

कुछ विशेष कारण जो वैदिक काल में शिक्षक के सम्मान का कारण हुआ करते थे –

  1. वैदिक काल में मौखिक शिक्षा का प्रचलन था वेद , उपनिषद आदि मौखिक रूप से विद्यार्थियों को अभ्यास कराया जाता था।
  2. अर्थात शिक्षा का हस्तांतरण मौखिक रूप से ही संभव था।
  3. शुद्ध उच्चारण के लिए एक कुशल आचार्य का होना अति आवश्यक था।
  4. कुशल आचार्य ही शुद्ध मंत्रों का अभ्यास करा सकता था।
  5. गुरु का ज्ञान केवल उपनिषद , दर्शन , वेद , शास्त्र आदि तक सीमित नहीं था।
  6. बल्कि वह अपने शिष्यों को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग भी बताया करते थे और उनका जीवन भर मार्गदर्शक की भूमिका निभाया करते थे।
  7. वैदिक काल में लेखन कला का प्रचलन नहीं था।
  8. जिसके कारण शिक्षा को चिरकाल तक संजय करके नहीं रखा जा सकता था।
  9. शिक्षा मौखिक होने के कारण शिष्य अपने गुरुओं पर निर्भर रहा करते थे।

उपरोक्त कारणों से समाज में शिक्षक का सम्मान और अधिक बढ़ जाता है। वैसे तो यह कुछ कारण थे किंतु अन्य और कारण भी थे जो शिष्यों को समाज में श्रेष्ठ स्थान प्रदान करता था। उन्हें का आदर और मान बढ़ाता था।

उनके ज्ञान के भंडार से समाज को एक नई दिशा मिलती थी।

किसी भी सांसारिक , आध्यात्मिक समस्या के लिए गुरु के पास हल था।

इन प्रमुख कारणों से गुरु का सम्मान समाज में हुआ करता था।

वैदिक काल में शिक्षक की योग्यताएं

शिक्षक बनने के लिए कुछ विशेष प्रकार की योग्यताएं अपेक्षित होती है। वर्तमान समय में भी शिक्षक बनने के लिए विशेष प्रकार की योग्यता का होना अनिवार्य है।

कई प्रकार की परीक्षाएं तथा गुण अपेक्षित है।

वैदिक काल में शिक्षक का विशेष महत्व था।

शिक्षक कोई ऐसा व्यक्ति ही बन सकता था जो समग्र रूप से अपने शिष्य को शिक्षित कर सके। जीवन भर उसका मार्गदर्शक बना रह सके , आदि विशेष प्रकार के गुण की आशा शिक्षक में की जाती थी।

शिक्षक की कुछ प्रमुख योग्यताएं निम्नलिखित है –

आदर्श चरित्र –

शिक्षक का चरित्र आदर्श की व्याख्या करने वाला होना चाहिए। शिष्य तभी आदर्श बन सकता है जब उसका गुरु आदर्श चरित्र का हो। एक चरित्रवान गुरु ही अपने शिष्यों को चरित्रवान बना सकता है।

इसलिए गुरु के चरित्र में आदर्श की अपेक्षा की जाती है।

धैर्यवान –

शिष्य भांति-भांति योग्यता तथा विवेक के होते हैं। गुरु को परिस्थिति के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए। अपने शिष्यों की बातों को सुनने और उसका निराकरण करने के लिए शिक्षक का धैर्य वन होना अति आवश्यक है।

निष्पक्षता का भाव –

शिक्षक को निष्पक्ष रहकर कोई भी निर्णय देना चाहिए। जब तक वह निष्पक्षता की भूमिका में नहीं रहेगा , वह अपने शिष्यों के बीच विश्वसनीय नहीं हो सकता।

अतः शिक्षक को निष्पक्ष रहकर किसी भी निर्णय को लेना चाहिए।

ज्ञानी, विषय का पूर्व ज्ञान –

शिक्षक को अपने विद्यार्थियों तक ज्ञान पहुंचाने और अपनी मर्यादा बनाए रखने के लिए उसे अपने विषय का पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक होता है।

इसके अभाव में वह अपने विद्यार्थियों के बीच ठीक प्रकार से संपर्क नहीं बिठा सकता।

अध्ययनरत रहने की प्रवृत्ति – 

शिक्षक जीवन भर अध्ययनरत रहता है। वह नए नए विषयों की खोज , सुधार तथा संशोधन के लिए तत्पर रहता है। जिसके कारण शिक्षक की गुणवत्ता में निखार आता है और वह अपने शिष्यों को भलीभांति प्रकार से समझा सकता है। उसका मार्गदर्शन कर सकता है।

अतः शिक्षक को सदैव अध्ययनरत रहना चाहिए।

प्रोत्साहित करने की भावना –

एक कुशल शिक्षक अपने शिष्य को सदैव प्रोत्साहित करता है। प्रोत्साहन पाकर शिष्य पहले से ज्यादा अच्छा करने का प्रयत्न करता है। प्रोत्साहन की कमी में शिष्य ठीक प्रकार से प्रगति नहीं कर पाते , अतः कुशल शिक्षक होने के लिए प्रोत्साहित करने की भावना का होना अनिवार्य है।

  1. उत्तम मनोविद – शिक्षक का मनोवैज्ञानिक होना आवश्यक है , वह अपने शिष्य के मन की भावना उसके विचारों का समग्र रूप से अध्ययन करते हुए उसका निवारण कर सकता है। जिसके लिए उसे उत्तम मनोविद होने की आवश्यकता है।
  2. आकर्षित व्यक्तित्व – गुरु का आकर्षण ही शिष्य को एक-दूसरे के साथ जोड़े रहता है। चाहे वह ज्ञान का आकर्षण हो या चरित्र का। गुरु को चाहिए वह अपने आकर्षक व्यक्तित्व से शिष्य को सदैव जोड़े रहे।

गुरु शिष्य सम्बन्ध

वैदिक काल में गुरु-शिष्य का संबंध वर्तमान युग की भांति नहीं था। बल्कि एक पारिवारिक और पितृवत तथा प्रत्यक्ष रूप से था।

आज के संदर्भ में गुरु और शिष्य का संबंध एक संस्था के रूप में होता है , जबकि वैदिक काल में ऐसा कदाचित नहीं था। गुरु अपने शिष्य का जीवन भर मार्गदर्शक बना रहता था। दोनों एक-दूसरे के बेहद निकट थे और जीवन पर्यंत एक-दूसरे से भेंट मुलाकात किया करते थे। गुरु का ज्ञान सभी क्षेत्रों तथा विषयों का हुआ करता था। जो अपने शिष्य को जीवन के सभी क्षेत्र और विशेष में मार्गदर्शन कर सके।

वैदिक काल में जिस प्रकार की शिक्षा गुरु के पास थी वर्तमान में वैसी शिक्षा का अभाव है।

वैदिक काल में गुरु तथा शिष्य दोनों का एक-दूसरे से मिल पाना ब्रह्मा की प्राप्ति माना जाता था।

क्योंकि वैदिक काल में उचित शिष्य तथा गुरु मिल पाना बेहद दुर्लभ था।

गुरु अपने शिष्यों का चयन स्वयं किया करते थे।

शिष्य वही शिक्षा का अधिकारी माना जाता था , जो ईमानदार सदाचारी और विवेकशील हो। गुरु द्वारा दिए गए शिक्षा को अपने जीवन पर्यंत याद रखें। समाज के बीच जाकर गुरु के द्वारा शिक्षा का उपयोग कर सके। ऐसे शिष्य का चयन गुरु किया करते थे।

शिष्य चाहे किसी भी वर्ण से आता हो , चाहे वह राजा का पुत्र हो या एक निर्धन गरीब।

सभी को एक समान जीवन जीना पड़ता था।

गुरुकुल में रहना पड़ता था , वहां की संपूर्ण सेवा व्यवस्था का दायित्व निभाना पड़ता था।

गुरु तथा उसके परिवार के लिए भोजन की व्यवस्था करनी पड़ती थी।

भिक्षा मांगने के लिए ग्राम तथा गृह-गृह जाना पड़ता था।

किसी भी परिस्थिति में शिष्य अपने गुरु का साथ दे, ऐसी भावना से युक्त शिष्य का चयन किया जाता था।

शिक्षा की इस त्यागमई जीवन तथा निरंतर गुरु का सानिध्य मिलने से दोनों के बीच परस्पर स्नेह है और पारिवारिक रिश्ता कायम हो जाता था।

जिसमें विश्वास , श्रद्धा , एक-दूसरे के प्रति समर्पण आदि का भाव जुड़ जाता था।

गुरु अपने शिष्य को पिता के समान मार्गदर्शन करता था।

शिष्य अपने गुरु को पिता से भी श्रेष्ठ मानकर उनका आदर किया करता था।

गुरु अपने शिष्य का आध्यात्मिक पिता माना जाता था।

गुरु और शिष्य का संबंध केवल गुरुकुल तक सीमित नहीं रहता था , बल्कि शिष्य के संपूर्ण जीवन से जुड़ा हुआ था।

शिक्षा समाप्त होने के बाद जब से अपने घर लौट जाया करता था।

तब गुरु तथा शिष्य दोनों एक-दूसरे से समय-समय पर मिला करते थे।

शिष्य अपने गुरु के गुरुकुल जाकर उनके लिए ससम्मान भेंट ले जाया करता था।

वही गुरु अपने शिष्य के घर जाकर अपने शिक्षा का अवलोकन किया करता था।

उसके शिक्षा विद्यार्थी के जीवन में कितना उपयोगी है , कितना अनुपयोगी , कितने सुधार की आवश्यकता है आदि का अवलोकन कर विद्यार्थी का मार्गदर्शन किया करता था।

गुरु और शिष्य का संबंध वैदिक काल में लाभदायक था।

दोनों अपने एक-दूसरे का जीवन भर ध्यान रखते थे।

किसी भी समस्या के लिए दोनों एक-दूसरे के लिए प्रस्तुत रहा करते थे।

गुरु अपने शिष्य को मोक्ष का मार्ग बताकर अपने शिक्षा को एक जगह स्थिर नहीं रखते थे।

अपने शिष्यों के माध्यम से अपने शिक्षा अगली पीढ़ी तक सौंप दिया करते थे।

गुरु के द्वारा दी गई शिक्षा विद्यार्थी को ईश्वर की प्राप्ति का सबसे बड़ा मार्ग माध्यम बनता था।

विद्यार्थियों की नियमित दिनचर्या

विद्यार्थी जीवन बेहद ही व्यवस्थित तरीके से व्यतीत किया जाता है। जो विद्यार्थी अपने जीवन को नियमित दिनचर्या में संगठित नहीं करता , उसका विद्यार्थी जीवन कठिनाइयों से व्यतीत होता है।

वैदिक काल में विद्यार्थियों की दिनचर्या सुव्यवस्थित थी।

प्रत्येक विद्यार्थी को ब्रह्म मुहूर्त में उठकर अपने नित्य क्रिया-कर्म से निर्वित्त होकर पूजा-पाठ करना होता था।

पिछले दिन के पाठ की पुनरावृत्ति के साथ नए पाठ को याद करना पढ़ता था।

तदुपरांत भोजन की व्यवस्था किया जाता था।

भोजन के उपरांत वह निकट के नगर तथा गांव कस्बों में जाकर भिक्षाटन का कार्य किया करते थे। भिक्षा को एकत्रित कर गुरुकुल लौट कर आना पड़ता था और रात्रि भोजन की व्यवस्था उन्हें स्वयं करनी पड़ती थी।

गुरु तथा उसके परिवार के लिए भी भोजन उन्हें पकाना पड़ता था।

रात्रि में विश्राम से पूर्व उन्हें पुनः संध्या वंदन तथा पाठ का अभ्यास करना पड़ता था।

शारीरिक व्यायाम भी उनके दैनिक जीवन का अभिन्न अंग था।

क्योंकि उस समय लिखित का कोई प्रचलन नहीं था , इसलिए सारे शिक्षा का कार्य मौखिक रूप से ही करना पड़ता था।

चाहे वह पाठ को याद करना हो या फिर पाठ की पुनरावृत्ति।

तय समय पर अपने शयनकक्ष में जाकर विश्राम करना होता था।

कुल मिलाकर विद्यार्थियों का जीवन व्यवस्थित और समय की पाबंदियों के साथ व्यतीत होता था। त

य समय पर सारे कार्य पूरे हो जाएं विद्यार्थी इसकी स्वयं चिंता किया करते थे।

छात्रों के कर्तव्य

वैदिक काल में छात्रों के कर्तव्य व्यापक थे। गुरुकुल का संपूर्ण दायित्व संभालना लगभग छात्रों का ही कार्य था। गुरुकुल की संपूर्ण व्यवस्था , भोजन , गुरु तथा उनके परिवार अन्य सहपाठियों के भोजन की व्यवस्था भी उन्हें ही स्वयं करनी पड़ती थी।

कुछ महत्वपूर्ण कर्तव्य निम्नलिखित बिंदुवार हैं –

  1. ब्रह्मचर्य का पालन करना।
  2. सदाचारी , ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ होना।
  3. गुरु , माता-पिता तथा संरक्षक का सदैव सम्मान करना उनका आदर करना।
  4. गुरु के प्रति विशेष प्रकार का आदर व्यक्त करना।
  5. उनके समक्ष ऊंचे स्वर में बात नहीं करना।
  6. उनसे ऊंचे आसन पर नहीं बैठना तथा सदेव गुरु की आज्ञा मानना आदि अनेक कर्तव्य गुरु के प्रति थे।
  7. परनिंदा तथा अहंकार से सदैव बचना।
  8. गुरु की आज्ञा ईश्वर की आज्ञा मानते हुए कर्तव्य करना।
  9. समस्त गुरुकुल की सेवा करना गुरु के परिवार का भरण-पोषण करना।
  10. गुरुकुल में रहने वाले समस्त सदस्यों के भोजन की व्यवस्था करना।
  11. सभी छात्रों के साथ आदर और सम्मान के साथ जीवन व्यतीत करना।
  12. ऊंच-नीच , छोटा-बड़ा आदि भावों का त्याग करना।
  13. समाज सेवा के लिए सदैव तत्पर रहना।
  14. आदि अनेक प्रकार के कर्तव्य छात्रों के लिए थे , जिनका पालन प्रत्येक छात्र के लिए अनिवार्य था।

जिसमें सर्वोपरि गुरु का सम्मान और उसके द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन था।

गुरुओं के कर्तव्य

वैदिक काल में गुरु शिक्षा का प्रमुख आधार था। जिस प्रकार शिष्य का कर्तव्य अपने गुरु के प्रति था उसी प्रकार गुरुओं का कर्तव्य भी अपने शिष्यों के प्रति था।

जिसमें निम्नलिखित कर्तव्य प्रमुख थे –

  1. गुरु अपने शिष्य का आध्यात्मिक पिता माना गया है। गुरु को अपने शिष्य के प्रति पिता के समान व्यवहार करना चाहिए। जिससे विद्यार्थी अपने पिता की कमी जीवन में महसूस ना करें। गुरु को पिता की आज्ञा मानकर उस पर विचार करें , और उस शिक्षा को अपने जीवन में अपनाएं।
  2. गुरु अपने शिष्य के संपूर्ण जीवन पर दृष्टि रखकर उसे अनुचित-उचित का भेद बताएं और निरंतर उसका मार्गदर्शन करता रहे। उसे सदैव प्रोत्साहित करते हुए उसके आत्मबल को बढ़ाता रहे।
  3. गुरुकुल के समस्त क्रियाकलापों को निर्देशित करता रहे तथा अपने छात्रों को उनकी कमियों से अवगत कराएं।
  4. गरीब तथा अत्यंत आवश्यकता वाले छात्रों को सुविधाएं उपलब्ध कराएं।
  5. शिक्षा देने के पीछे शिक्षक का निजी स्वार्थ ना हो।
  6. शिक्षक का आदर्श छात्रों के लिए अनुकरणीय हो।
  7. गुरु अपने जीवन में सत्य , सदाचरण , चरित्रवान तथा आध्यात्मिक ज्ञान रखता हो।
  8. गुरु का प्रमुख कर्तव्य है कि वह अपने छात्रों के लिए माता तथा पिता की भूमिका में सदैव सर्वत्र रहे।

वैदिक काल में स्त्री शिक्षा

वैदिक काल में स्त्री शिक्षा की भी व्यवस्था थी। जिस प्रकार बालक शिक्षा ग्रहण किया करते थे ठीक उसी प्रकार बालिकाएं भी शिक्षा ग्रहण किया करती थी। उन्हें भी अलग गुरुकुल में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता था। गुरु तथा आचार्य से अपने जीवन के लिए शिक्षा ग्रहण करने के लिए उन्हें अपने गुरु तथा आचार्य का चयन करना पड़ता था।

बालिकाओं के लिए अलग छात्रावास का प्रबंध था

जिसके लिए महिला शिक्षिका नियुक्त की जाती थी कितने ही ऐसे उदाहरण देखने को मिले हैं जहां आचार्यों ने गुरु ने अपनी पुत्री को विधिवत शिक्षा दी थी जिसमें गार्गी देवयानी मैत्री आदि है. बालिका शिक्षा के लिए कोई विशेष प्रतिबंध नहीं था वह भी स्वतंत्र रूप से पूजा पाठ यज्ञ हवन आदि में भाग लिया करती थी शास्त्र तथा अन्य साहित्य का अध्ययन किया करती थी उनके लिए विशेष रूप से लालित्य कला का भी प्रबंध था। कितनी ही ऐसी विदुषीयों का उदाहरण है जिन्होंने शिक्षा ग्रहण कर एक स्त्री शिक्षा के लिए मिसाल कायम किया है।

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निष्कर्ष –

समग्रतः कहा जा सकता है कि वैदिक काल की शिक्षा वर्तमान शिक्षा से भिन्न थी।  पूर्व समय जहां शिक्षा का केंद्र गुरु हुआ करता था , आज के समय शिक्षा का केंद्र बालक को माना गया है।

संपूर्ण पाठ्यक्रम बालक को केंद्र में रखकर तैयार किया जाता है पूर्व समय में ऐसा नहीं था।

आज शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है।

एक संस्था के रूप में शिक्षक तथा छात्र मिलते हैं और वह भी कुछ समय के लिए।

जबकि पूर्व समय में शिक्षक तथा छात्र जीवन भर एक दूसरे से मिला करते थे और शिक्षा के समय गुरुकुल में एक समय साथ भी रहते थे।

जहां वैदिक काल में विद्यार्थियों को अपने गुरुकुल , सहपाठी तथा गुरु के परिवार आदि के लिए भोजन तथा अन्य सुविधाओं का प्रबंध करना पड़ता था। वर्तमान समय में वैसा आग्रह नहीं है , क्योंकि विद्यार्थी अपने निवास स्थान पर रहता है। वह अपने माता-पिता के साथ रहता है और भोजन आदि की आवश्यकता विद्यालय में नहीं पड़ती।

वैदिक काल में शिक्षा का पाठ्यक्रम भिन्न था

जहां ज्योतिष , गणित , वेद-वेदांत , नीति आदि की शिक्षा दी जाती थी।

वही आधुनिक काल में अब शिक्षा का पाठ्यक्रम उसके विपरीत है।

आज साहित्य विभिन्न प्रकार के उपलब्ध है। कक्षा की श्रेणी के अनुसार अलग-अलग प्रकार की पुस्तकें पढ़ाई जाती है।

जबकि वैदिक काल में सभी प्रकार की शिक्षा ग्रहण करना आवश्यक था।

समग्रतः कह सकते हैं कि आवश्यकता के अनुसार शिक्षा ने अपना रूप-रंग और व्यवस्था को सदैव परिवर्तित किया है। शिक्षक-छात्र पाठ्यक्रम , समय , विद्यालय आदि सब समय और आवश्यकता अनुरूप परिवर्तित होते रहे हैं। किंतु फिर भी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थी को शिक्षित करना तथा उसके चरित्र को विकास करना और समाज का कल्याण करना ही है।

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