Parsi rangmanch | hindi rangmanch | पारसी रंगमंच

Hindi parsi rangmanch पारसी रंगमंच

 

अंग्रेजों के शासनकाल में भारत की राजधानी जब कोलकाता (1911) थी , वहां 1854 मे पहली बार अंग्रेजी नाटक मंचित हुआ। इससे प्रेरित होकर नव शिक्षित भारतीयों में अपना रंगमंच बनाने की इच्छा जागी।मंदिर में होने वाले – नृत्य , गीत , आदि आम आदमी के मनोरंजन के साधन थे। इसके अलावा रामायण तथा महाभारत जैसी धार्मिक कृतियों ,  पारंपरिक लोक नाटकों , हरि कथाओं , धार्मिक गीतों , यात्राओं जैसे पारंपरिक मंच प्रदर्शन से भी लोग मनोरंजन करते थे।

पारसी थियेटर से लोक रंगमंच का जन्म हुआ। एक समय मैं संपन्न पारसियों ने नाटक कंपनी खोलने की पहल की और धीरे-धीरे यह मनोरंजन का एक लोकप्रिय माध्यम बनता चला गया , जिसकी जड़ें इतनी गहरी थी कि आधुनिक सिनेमा भी इस प्रभाव से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया।आधुनिक सिनेमा के अधिकतर कला पारसी रंगमंच से प्रेरित है।

पारसी रंगमंच 19वीं शताब्दी के ब्रिटिश रंगमंच के मॉडल पर आधारित था। इसे पारसी रंगमंच इसलिए कहा जाता था क्योंकि पारसी व्यापारी इससे जुड़े हुए थे। वह इसमें अपना धन लगाते थे , उन्होंने पारसी रंगमंच को अपनी पूरी तकनीक प्रदान की थी। यह तकनीकें ब्रिटेन से मंगाई गई थी , इसमें प्रोसीनियम स्टेज से लेकर बैकस्टेज की जटिल मशीनरी भी थी। लेकिन लोक रंगमंच गीतों , नृत्य , परंपरागत लोक , हास – परिहास के कुछ आवश्यक तत्व और इनकी प्रारंभ तथा अंत की इमारतों को पारसी रंगमंच ने अपनी कथा कहने की शैली में शामिल कर लिया था। दो श्रेष्ठ परंपराओं का यह संगम था और तमाम मंचीय प्रदर्शन पौराणिक विषयों पर होते थे , जिनमें परंपरागत गीतों तथा प्रभावी मंचीय युक्तियों का प्रयोग अधिक होता था। कथानक गढ़े हुए और मंचीय होते थे। जिनमें भ्रमवश एक व्यक्ति को दूसरा व्यक्ति समझा जाता था। घटनाओं में सहयोग की भूमिका होती थी , जोशीले भाषण होते थे , चट्टानों से लटकाने का रोमांच होता था।  और अंतिम क्षण में बचाव किया जाता था सचरित्र नायक की दुष्चरित खलनायक पर जीत दिखाई जाती थी और इन सभी को गीत संगीत के साथ विश्वसनीय बनाया जाता था।

औपनिवेशिक काल में भारत के हिंदी क्षेत्र के विशेष लोकप्रिय कला माध्यमों में आज का आधुनिक रंगमंच और फिल्मों की जगह ‘ आल्हा ‘ , ‘ कव्वाली ‘ मुख्य थे। लेकिन पारसी थियेटर के आने के बाद दर्शकों में गाने के माध्यम से बहुत सी बातें कहने की परंपरा चल पड़ी , जो दर्शकों में लोकप्रिय होती चली गई। बाद में 1930 के दशक में आवाज रिकॉर्ड करने की सुविधा शुरू हुई और फिल्मों में भी इस विरासत को नए तरह से अपना लिया गया। 1853 में अपनी शुरुआत के बाद से पारसी थियेटर धीरे – धीरे एक ‘ चलित थिएटर ‘ का रूप लेता गया और लोग घूम – घूम कर नाटक देश के हर कोने में ले जाने लगे। पारसी थियेटर के अभिनय में मेलोड्रामा अहम तत्व था और संवाद अदायगी बड़े नाटकीय तरीके से होती थी। उन्होंने कहा कि आज भी फिल्मों के अभिनय में पारसी नाटक के तत्व दिखाई देते हैं।

80 वर्ष तक पारसी रंगमंच और इसके अनेक उपरूपो ने मनोरंजन के क्षेत्र में अपना सिक्का जमा लिया। फिल्म के आगमन के बाद पारसी रंगमंच ने विधिवत अपनी परंपरा सिनेमा को सौंप दी। पेशेवर रंगमंच के अनेक नायक – नायिकाए , सहयोगी कलाकार , गीतकार , निर्देशक , संगीतकार सिनेमा क्षेत्र में आ गए। आर्देशिर , ईरान , वाजिया ब्रदर्स , पृथ्वीराज कपूर , सोहराब मोदी और अनेक महान दिग्गज रंगमंच की प्रतिभाएं थी जिन्होंने शुरुआती दौर में भारतीय फिल्मों को समृद्ध किया।

पारसी रंगमंच के बारे में बड़े शहरों में यह मान लिया गया है कि वह जीवित परंपरा नहीं है , यह सही है कि पहले जैसी पारसी नाटक अब नहीं होते , लेकिन उस तरह के नाटक पूरी तरह विलुप्त हो चुके हैं यह मानना भी सही नहीं है। अलवर राजस्थान में फारसी शैली आज भी जीवित है और वहां एक पारसी नाटक पिछले 69 साल से यानी 1947 से लगातार 800 से अधिक प्रस्तुतियां कर चुका है और इसे देखने के लिए अब भी हर रात हजारों की संख्या में जुड़ते हैं।

इस नाटक का नाम है भर्तृहरि भारतीय परंपरा में भर्तृहरि के कई ऐतिहासिक स्मृतियां हैं , वह वैयाकरण है नीतिशतकम् , श्रृंगार शतकम ,  और वैराग्य शतकम। नाथपंथी योगी भी हैं , नाथपंथी भर्तृहरि लोक मे थरथरी के नाम से विख्यात है। अलवर में भर्तृहरि की समाधि भी है , और वहां के लोग देवता माने जाते हैं। हालांकि आचार्य और नाथपंथी भर्तृहरि एक है या दो इस पर विद्वानों में मतभेद है। लेकिन लोक परंपरा में दोनों भर्तहरि को एक मान लिया गया है। अलवर में जो नाटक होता है उसमें भी भर्तृहरि एक ही है। इसमें दिखाया जाता है कि नाथपंथी के गुरु महेंद्र नाथ अपने शिष्य गोरखनाथ को कहते हैं , वह जाकर राजा भर्तृहरि को असली जगह तो नाथ पंथ में है। साढे 6 घंटे तक चलने वाले इस नाटक में दो मध्यांतर होते हैं।

पहले मध्यांतर के पहले यह दिखाया जाता है कि किस तरह भर्तृहरि बतौर राजन नीति के आचार्य हैं। दूसरे मध्यांतर के पहले यह दिखाया जाता है कि वह किस तरह अपनी रानी पिंगला से प्रेम करते हैं , लेकिन पिंगला उनसे नहीं बल्कि उसके दरबारी से प्रेम करती है इसमें अमर फल वाला पूरा किस्सा आता है। और तीसरे हिस्से में यह दिखाया जाता है कि किस तरह राजा भर्तृहरि जोगी बन जाते हैं।

 

पारसी रंगमंच की चार प्रमुख खासियत है –

 

  • पहला पर्दों का नया प्रयोग , मंच पर हर दृश्य के लिए अलग-अलग पर्दों का प्रयोग में लाया जाना ताकि दृश्यों में गहराई और विश्वसनीयता लाई जा सके। आजकल फिल्मों में अलग-अलग लोकेशन दिखाए जाते हैं। पारसी रंगमंच में यह काम पर्दों के सहारे होता था।
  • दूसरी खासियत उसमें संगीत , नृत्य और गायन का प्रयोग होता था। पारसी नाटकों में नृत्य और गायन का यही मेल हिंदी फिल्मों में आया है। इसी वजह से भारतीय फिल्म में पश्चिमी फिल्मों से अलग होने लगी है।
  • तीसरी खूबी वस्त्र – सज्जा यानी कॉस्टयूम है। पारसी रंगमंच पर अभिनेता जो कपड़े पहनते हैं , उन्हें रंगो और अलंकरण का खास ध्यान रखा जाता है , क्योंकि दर्शक बहुत पीछे तक बैठे होते हैं इसलिए उनका ध्यान रखकर वस्त्रों का चयन किया जाता है , और पात्रों को अलंकरण के रंगों में बहुतायत दिखाया जाता है।
  • पारसी रंगमंच की चौथी बड़ी खूबी लंबे संवाद है। पारसी नाटकों के संवाद ऊंची आवाज में बोले जाते हैं , इसलिए संवादों में अति नाटकीयता भी रहती है। अलवर में होने वाले भर्तृहरि नाटक में फारसी शैली के ये चारों खूबियां मौजूद है।

 

अलवर में यह नाटक राजर्शी अभय समाज द्वारा आयोजित किया जाता है। संस्था में मौजूदा अध्यक्ष बताते हैं कि इसमें भाग लेने वाले ज्यादातर कलाकार ही होते हैं , और बिना किसी पारिश्रमिक के काम करते हैं। यह नाटक दशहरा के बाद शुरू होता है और दीपावली के 1 दिन पहले तक चलता है। यानी हर साल 15 दिनों तक इस नाटक का मंचन किया जाता है। अलवर में नाथपंथियों का मठ भी है , हालांकि इस नाटक से इस पंथ का कोई संबंध नहीं होता। लेकिन अलवर की स्मृति में थरथरी या भर्तृहरि का विशिष्ट महत्ता है। भर्तृहरि स्मृति और पारसी रंगमंच दोनों के लिहाज से इस नाटक का कलात्मक और ऐतिहासिक महत्व है। यह भी दिखाया जाता है सिर्फ धर्म ही नहीं बल्कि कलाएं यानी नाटक भी लोग की स्मृति में लंबे वक्त तक सुरक्षित रहते हैं।

 

यह भी पढ़ें –
नाटक
भारत दुर्दशा का रचना शिल्प
ध्रुवस्वामिनी राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना।
ध्रुवस्वामिनी की पात्र योजना
ध्रुवस्वामिनी नाटक का रचना शिल्प
त्रासदी नाटक क्या है

त्रासदी नाटक रंगमंच traasdi natak rangmanch

भारतीय नाट्य सिद्धांत bhartiya naatya siddhant

रूपक और उपरूपक में अंतर

( इस लेख में अगर कोई त्रुटि हो तो मानवीय भूल समझ कर हमे अवश्य सूचित करें ताकि हम सुधार कर सकें।आपकेसुझाव के हम सदैव प्रतीक्षा में रहते है कृपया अपने सुझाव हमे कमेंट बॉक्स में करें – निशिकांत ।)

हमे सोशल मीडिया पर फॉलो करें

facebook page

youtube channel

1 thought on “Parsi rangmanch | hindi rangmanch | पारसी रंगमंच”

Leave a Comment