दुख के कारण – Dukh ke karan

वर्तमान समय में कोई भी व्यक्ति खुश नहीं है , क्योंकि वह खुश रहना भी नहीं चाहता , इसलिए सदैव दुख में घिरा रहता है। आज के लेख में हम व्यक्ति के मानसिकता का अध्ययन कर रहे हैं , जिसके कारण उसके दुख उससे दूर नहीं जाते।

इस लेख के माध्यम से हम दुख के कारणों को प्रमुखता से जानेंगे। दुखों की पहचान कर , उससे बचने का प्रयत्न करेंगे। जिसके माध्यम से काफी हद तक हम खुश रहने का प्रयत्न कर सकते हैं। यह लेख आपको अवश्य ही पढ़ना चाहिए , क्योंकि आज यह लेख की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है।

जब संसार में एक – दूसरे से बढ़कर दिखने की प्रतिस्पर्धा चल रही है –

दुख के कारण – Dukh ke karan kya hain

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है , वह समाज में रहते हुए अपना सर्वांगीण विकास करता है। वैसे तो मनुष्य के अलावा पशु-पक्षी भी अपने समाज में रहते हैं। किंतु मनुष्यों की भांति उनका समाज नहीं होता , जिसमें सुख-दुख , हर्ष – विषाद आदि होते हैं।

जब समाज और सामाजिक शब्द का प्रयोग होता है तो मनुष्य की ही चर्चा की जाती है।

सुख और दुख वैसे तो सभी प्राणियों में होता है , किंतु मनुष्य उसको जीवंत रूप से अनुभव करता है।  उससे मनुष्य जीवन में प्रभावित होता है। मनुष्य के जीवन में सुख और दुख आता जाता रहता है , जीवन इसी को कहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में सुख और दुख को अवश्य महसूस करता है , अतः उसको जीता है। दुख प्रत्येक व्यक्ति के लिए कष्टदायक होता है। किंतु सिद्ध और शिक्षित व्यक्ति , दुख के समय को अपने विवेक और सहनशीलता के कारण व्यतीत कर देता है।

वहीं कमजोर और कायर प्रवृत्ति के लोग दुख के समय को झेल नहीं पाते। यहां तक कि वह अपने जीवन को भी समाप्त कर लेते हैं। दुख व्यक्ति के जीवन का अभिन्न अंग है , अगर उसको जीवन मिला है तो दुख भी अवश्य ही सहन करना पड़ेगा। किंतु दुख के अनेक रूप हैं। कितने ही दुख व्यक्ति खुद जन्म देता है , दुख प्रकृति के द्वारा व्यक्ति के जीवन में आता है तो उसको सहा जा सकता है।

किंतु जो दुख व्यक्ति स्वयं उपजाता है उसको सहन करना काफी कठिन हो जाता है।

दुख व्यक्ति के जीवन में इतना हावी हो जाता है कि , वह दुख को सहन करने की क्षमता खो बैठता है। हमें अपने जीवन में सतर्क सजग रहते हुए दुख को अपने व्यक्तिगत जीवन से दूर ही रखना चाहिए दुख के प्रमुख कारण निम्नवत है –

 

परिवार का विघटन

जैसा कि आप जानते हैं मनुष्य सामाजिक प्राणी है , वह समाज में ही रहते हुए अपने जीवन को जीता है। समाज से अलग उसका जीवन संभव नहीं है। अतः समाज में रहते हुए उसे परिवार की आवश्यकता होती है , जिसमें उसके माता-पिता , चाचा चाची और रिश्तेदार शामिल होते हैं।

\आपने कुछ ही समय पूर्व महसूस किया होगा , व्यक्ति का परिवार संगठित हुआ करता था।

एक ही परिवार में कितनी ही पीढ़ियां देखने को मिल जाया करती थी।

किंतु वर्तमान समय में ऐसा नहीं है , क्योंकि परिवार का विघटन हो चुका है।

आज की भाग – दौड़ में व्यक्ति के पास इतना समय नहीं होता कि वह बैठकर अपने परिवार के साथ समय व्यतीत कर सके। यह व्यक्तिगत जीवन में दुख का सर्वप्रथम प्रमुख कारण है।

लोग एक – दूसरे की भावनाओं को नहीं जानते , नहीं समझते और ना ही उसे कद्र करते हैं।

जिसके कारण व्यक्ति अपने ही परिवार से दूर हो जाता है।

धीरे-धीरे एक समय ऐसा आता है जब उन्हें अपने ही परिवार की आवश्यकता महसूस नहीं होती , अपितु वह बोझ लगने लग जाता है।

ऐसे में परिवार का शीघ्र ही पतन हो जाता है।

परिवार के विघटन का सर्वप्रथम असर उन बच्चों पर पड़ता है , जो केवल मां बाप के संरक्षण में रहते हैं। क्योंकि परिवार का विघटन हो जाने के कारण बुजुर्ग लोग बच्चों के संपर्क में नहीं होते। बुजुर्ग बालक के प्रारंभिक ज्ञान और तीक्ष्ण बुद्धि के लिए सबसे आवश्यक होते हैं। पूर्व समय में बच्चे अपने दादा – दादी के पास ही पलते थे। शोध में भी पाया गया है जिन बच्चों ने अपना बचपन दादा – दादी के साथ व्यतीत किया उनके मानसिक विकास और बालकों से अधिक पाया गया।

परिवार का विघटन मनुष्य के दुख का सर्वप्रथम कारण है।पूर्व समय में कोई भी कष्ट या दुख हुआ करता था , तो वह पूरे परिवार मिलकर सह लेते थे , और उसे दूर किया करते थे। किंतु आज उन दुखों को केवल दो व्यक्ति ही मिलकर रहते हैं , इसलिए उसकी पीड़ा और अधिक बढ़ जाती है।

 

समाज से दूरी

जिस प्रकार परिवार का विघटन हुआ है , ठीक उसी प्रकार समाज का भी विघटन होता गया है। पहले का कोई भी त्यौहार परिवार और समाज मिलकर संयुक्त रूप से मनाया करते थे।

कोई भी विवाह समारोह या धार्मिक समारोह हो पूरा गांव एक होकर उसे मनाया करता था।

आज यह संभव नहीं है क्योंकि व्यक्ति ने स्वयं समाज से दूरी बना ली है।

भागती – दौड़ती जिंदगी में लोगों ने अपने आप को अकेला और समाज से दूर कर लिया है। जहां आवश्यकता पड़ने पर भी उसका परिवार तथा समाज साथ नहीं होता। लोगों ने शहर की ओर जैसे ही अपना रुख किया , वहां उन्होंने अपने समाज से स्वयं को ही चाहे – अनचाहे दूर कर लिया है। वैश्विक स्तर पर आज आर्थिक व्यवस्था की संरचना इस प्रकार हो गई है , कि प्रत्येक व्यक्ति को आर्थिक रूप से सशक्त होने की आवश्यकता है। क्योंकि वह अपने मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिक से अधिक धन चाहता है।

जिसके कारण वह दिन – रात परिश्रम करता है और अपने घर – परिवार तथा समाज से दूर होता चला जाता है।

समाज से दूरी होने पर व्यक्ति और अधिक दुख के द्वार पर पहुंच जाता है , क्योंकि समाज से उसे वह सभी भावनाएं प्राप्त होती हैं जो व्यक्ति के बौद्धिक विकास के लिए आवश्यक होती है। यह भावनाएं समाज और परिवार से ही मिल सकती है। व्यक्ति ने स्वयं को समाज और परिवार से दूर कर लिया है इसके कारण उसकी मानसिक स्थिति प्रभावित होती है।

इसके शिकार खासतौर पर वह बालक होते हैं , जिनका कोई कसूर नहीं होता। मां – बाप ने स्वयं को परिवार और समाज से दूर कर लिया है , इसलिए बच्चे को भी परिवार और समाज से दूर ही रहना पड़ता है। यह दूरी बच्चे के सर्वांगीण विकास को प्रभावित करती है। बच्चे में सामाजिक भावनाएं विकसित नहीं हो पाती , जिसके कारण एक समय आने पर वह भी अपने माता – पिता को छोड़कर अलग हो जाते हैं।

इस प्रकार की भावनाएं बालक के मन में नहीं जन्म लेनी चाहिए।

 

अधिक धन की लालसा

वर्तमान समय में धन ही लोगों की आवश्यकता बन गई है , काफी हद तक यह सच्चाई भी है। बिना धन के व्यक्तिगत सुखी जीवन संभव नहीं है। मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी धन का होना अति आवश्यक है। अन्यथा धन के अभाव में होने वाली हालत सड़कों पर घूमने वाले भिखारियों को देख सकते हैं यह धन के अभाव के कारण ही हुआ है।

व्यक्ति अपने समाज में प्रतिष्ठा और सुखी जीवन के लिए ही धन की और आकर्षित होता है।

आज की व्यवस्था यही है जिसके पास अधिक धन है वह समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति है।

सभी उसको अपना आदर्श मानते हैं , और उसका सम्मान करते हैं।

धन के अभाव में व्यक्ति की अवहेलना की जाती है उसे नालायक , आवारा आदि समझा जाता है।

अतः व्यक्ति अपने समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान की जिंदगी जीने के लिए धन की लालसा रखता है। यह लालसा उस समय तक ठीक होता है जब आवश्यकताओं की पूर्ति तक सीमित हो। किंतु अधिक और अति आवश्यकता या लालच व्यक्ति का सर्वनाश कर देती है। जो व्यक्ति अधिक धन की लालसा रखता है वह उस धन का भोगी कभी नहीं बन सकता। धन संचय करने में ही उसका जीवन निकल जाता है।  वह धन व्यक्तिगत जीवन में अधिक भूमिका नहीं निभा पाता।

व्यक्ति को धन की आवश्यकता होती है इसे नकारा नहीं जा सकता। किंतु अपने जीवन को भी समझना चाहिए , व्यक्तिगत जीवन बहुमूल्य है इसे धन के लालच में नहीं लुटाना चाहिए।

 

संतुष्टि की भावना का लुप्त होना

संतुष्टि की भावना आज व्यक्ति में नहीं रही है , वह कभी भी संतुष्ट नहीं होता अगर उसके पास थोड़ा है तो वह बहुत की लालसा रखता है। अगर उसके पास बहुत है तो उससे ज्यादा और अधिक की लालसा रखता है। जिसके कारण वह कभी भी संतुष्ट नहीं होता।

आज व्यक्ति इस कारण भी दुखी रहता है कि उसे किसी प्रकार का दुख नहीं है।

ऐसी भावना मनुष्य के जीवन में घर कर गई है।

जिसके कारण वह कभी भी संतुष्ट नहीं हो सकता।

पूर्व समय में जहां लोग स्वयं अपना घर संतुष्ट रूप से चलाते थे।

अतिथियों का भी स्वागत – सत्कार खुश होकर किया करते थे। आज उस संतुष्टि के भाव के लुप्त हो जाने के कारण अतिथियों का सत्कार भी ठीक प्रकार से नहीं हो पाता।

संतुष्टि का जीवन में होना अति आवश्यक है।

बिना संतुष्टि के व्यक्ति मानसिक रोगी बन जाता है वह सदैव दुखी रहता है जिसके कारण उसके शरीर पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

एक सामान्य व्यक्ति और एक संत या योगी को देखें दोनों के स्वभाव और जीवन में बेहद ही अंतर देखने को मिलता है। जहां एक व्यक्ति अपने दुख से ग्रसित रहता है वही संत या योगी व्यक्ति संतुष्टि का भाव रखता है। जिसके कारण उसका शरीर स्वस्थ रहता है , चेहरे पर मुस्कान रहती है और दीर्घायु भी होता है।

 

वैमनस्य भाव

वैमनस्य भाव आज समाज का सबसे बड़ा शत्रु बन गया है। इस भाव ने परिवार को तो तोड़ा ही है , समाज को भी बिखरा दिया है। लोगों में वैमनस्य का भाव इस कदर व्याप्त है कि एक – दूसरे की तरक्की नहीं देखी जाती। अगर कोई पड़ोसी या अपना रिश्तेदार ही

सफल हो रहा है , उसे खुशियां मिल रही है तो उसकी खुशियों में शामिल होने के बजाय लोग द्वेष और वैमनस्य का भाव रखने लगते हैं।

वैमनस्य के भाव ने मनुष्यों के जीवन को कम कर दिया है।

जहां पूर्व समय में लोग सौ वर्ष से अधिक जिया करते थे।

आज औसतन साठ से अस्सी  साल तक ही जीवित रह पाते हैं।

जिसका एक प्रमुख कारण , वैमनस्य का भाव भी है। वैमनस्य से क्रोध का भाव जागृत होता है और क्रोध के जागृत होते ही वह शरीर का नाश कर देता है।

यही क्रोध व्यक्ति का सर्वनाश तक कर देता है।

व्यक्ति को अपने परिवार और समाज से जुड़ कर रहना चाहिए।

वैमनस्य का भाव रखकर आप संतुष्ट और खुश नहीं रह सकते।

अतः  आपको इस भाव का त्याग करना ही होगा। अगर किसी के साथ वैमनस्य का भाव जागृत होता है , तो उसे अपने सगे – संबंधियों के साथ मिलकर इस भाव को दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए।

 

कार्य का अधिक दबाव

अधिक धन और अपने जीवन शैली में काफी अच्छा दिखने की चाह में व्यक्ति को धन संचय करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। जिसके कारण उसे कार्य करने की क्षमता का विकास करना होता है , किंतु यह क्षमता धीरे – धीरे उम्र के साथ कम होती जाती है। पूंजीवादी समाज में जहां पूंजी की महत्ता है वहां व्यक्ति फंस कर अपना महत्वपूर्ण समय गवा देता है।

ऑफिस , घर आदि कहीं भी व्यक्ति कार्य  के दबाव से बचा नहीं है , ऑफिस का कार्य इतना होता है कि वह ऑफिस के अलावा घर पर भी उस कार्य को करता है , जिसके कारण वह पूरे दिन व्यस्त रहता है। घर का भी काम इतना अधिक होता है जिसके कारण वह ऑफिस और घर के काम में सामंजस्य नहीं बैठा पाता। जिसके कारण परिवार तथा समाज से दूरी बना लेता है , उसके लिए केवल कार्य ही शेष रहता है।

कार्य की अधिकता के कारण व्यक्ति मानसिक रूप से कमजोर होता है।

इसका विपरीत असर शरीर पर भी पड़ता है। कार्य का ठीक प्रकार से प्रबंधन किया जाना चाहिए। अधिक कार्य को अपने ऊपर बोझ के रूप में नहीं लेना चाहिए। जो स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है। माना जाता है अगर व्यक्ति का स्वास्थ्य ठीक है तो , वह सबसे संपन्न व समृद्धशाली है।

किंतु स्वास्थ्य के ठीक ना होने पर व्यक्ति कुछ भी कर पाने में सक्षम नहीं होता।

 

स्वयं के लिए समय की कमी

समय इतना तीव्र गति से भागता जा रहा है , कि व्यक्ति के पास स्वयं के लिए समय नहीं है। मेरा आशय से स्पष्ट है , आज व्यक्ति अपने स्वयं के लिए समय नहीं देना चाहता। आधुनिक विज्ञान और तकनीक की दुनिया में वह स्वयं को जानने के बजाय। दिखावटी और वे बुनियादी जालो में फंसता जा रहा है।

व्यक्ति के पास स्वयं और अपने शरीर को समझने अथवा जानने का भी क्षमता नहीं है। पूर्व समय में जहां व्यक्ति अपने शरीर को भलीभांति जाना करते थे। किसी भी प्रकार के शारीरिक कष्ट को वह बेहद आसानी और सटीक तरीके से पहचान लिया करते थे और उसका उपचार कर निवारण करते थे। आज वह कला कहीं लुप्त हो गई है।

शायद यह समय ने उस कला को निगल लिया है।

कार्य और पूंजी की अधिक चाहा आदि उधेड़बुन में व्यक्ति इतना उलझ गया है , वह अपने लिए तनिक भी समय नहीं देता। अपने शरीर का बिल्कुल भी ध्यान नहीं देता , जिसके कारण निरंतर उसका स्वास्थ्य गिरता जाता है।  शरीर दिन – प्रतिदिन कमजोर होता जाता है। ऐसा कार्य अथवा पूंजी किस काम की जो शरीर के लिए ही हितकर ना हो। अतः व्यक्ति को स्वयं के लिए समय निकालना चाहिए , अपने मनचाहे कार्यों को करना चाहिए।  संगीत , योग अथवा अन्य ऐसी प्रिय कार्य करना चाहिए जो मनोरंजक हो। मन के लिए हितकर हो जिससे स्वास्थ्य के साथ शरीर को भी लाभ मिलेगा।

व्यक्ति को स्वयं के लिए तो समय निकालना ही चाहिए और अपने आसपास समाज के लिए भी समय अवश्य ही देना चाहिए।  क्योंकि यह उनके सर्वांगीण विकास के लिए बेहद ही आवश्यक है। अपने घर के छोटे – बड़े सभी लोगों को प्रेरित करना चाहिए समय का सदुपयोग कर अपने जीवन को सुरक्षित और संयमित होकर जीना चाहिए।

 

शारीरिक कसरत व योग से दूरी

कार्य के बोझ और पूंजी कि अधिक लालसा ने व्यक्ति को शरीर की ओर ध्यान देने तक का समय नहीं दिया है। समय पर खान-पान नहीं करना और बाहर का अधिक भोजन करना। इस प्रकार की लापरवाही शरीर के लिए जहां खतरा बनती जा रही है। मोटापा , तनाव आदि इसके प्रमुख लक्षण व्यक्ति में प्रमुखता से दिखने लगे हैं।

ऐसे समय में व्यक्ति अपने शरीर के लिए कुछ भी कर पाने में असमर्थ हो रहा है।

आज के दौर में जहां अनेकों बीमारियां व्यक्ति के छोटे-मोटे लापरवाही का इंतजार कर रही है। ऐसे समय में व्यक्ति अपने शरीर के लिए योग अथवा कसरत तक नहीं करता , जबकि यह उसके स्वास्थ्य के लिए बेहद ही आवश्यक है।

भारत सरकार ने इस महत्व को देखते हुए योग दिवस की शुरुआत की , जिसे पूरे विश्व ने एक स्वर से स्वीकार किया है। यह आज विश्व स्तर पर अपनाया जा रहा है। जबकि व्यक्ति छोटी सी लापरवाही के कारण इसको अपनाने से बच रहा है। योग अनेकों बीमारियों का इलाज कर सकती है और संभावित बीमारियों को दूर रख सकती है इसलिए व्यक्ति को अपने जीवन में योग का अपनाना आवश्यक है।

भारत सरकार ने खेलो इंडिया की मुहिम छेड़ रखी है जिसमें शारीरिक कसरत और योग का प्रमुख योगदान है। यह सभी प्रकार के कार्यक्रम व्यक्ति के स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर ही तैयार किया जाता है।

किंतु फिर भी इन सभी के महत्व को व्यक्ति समझने से बचता है यह उसकी नासमझी है।

निष्कर्ष :-

उपयुक्त समस्त बिंदुओं पर ध्यान देकर हमने यह समझा है , कि व्यक्ति के दुखों का कारण व्यक्ति स्वयं है। अगर वह स्वयं से चाहें तो अपने समस्त दुखों को दूर कर सकता है। दुख व्यक्ति के लिए निश्चित रूप से हितकर कभी नहीं हुआ है। अतः जितना हो सके उससे बचना चाहिए और अगर दुख के समय में धैर्य और साहस से काम लिया जाए , तो बड़े से बड़े दुख को भी दूर किया जा सकता है।

समस्त बिंदुओं को हमने विचार कर पाया है कि , व्यक्ति इन सभी बिंदुओं पर स्वयं से ध्यान देकर बड़े से बड़े  दुख को अपने सामने पराजित कर सकता है।  स्वयं के दुखों को भी दूर कर सकता है तथा अपने आस-पड़ोस तथा समाज के दुखों को भी दूर करने की क्षमता उसमें आ जाती है। उपर्युक्त सभी बिंदुओं पर जिस व्यक्ति ने थोड़ा सा भी ध्यान दिया , वह व्यक्ति निश्चित रूप से समाज में श्रेष्ठ बन सकता है। वह अपने समाज के लिए मिसाल कायम कर सकता है। क्योंकि ऐसे लक्षण आज के व्यक्ति में विलुप्त से होते जा रहे हैं , जिसमें सामाजिक भावनाएं प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो।

अंत में मैं आपसे अनुरोध करता हूं , आप अपने दुखों को स्वयं से ही हरा सकते हैं। किंतु उसके लिए आपको उपर्युक्त बिंदुओं पर ध्यान देते हुए संवेदनशील होने की आवश्यकता है।

1 thought on “दुख के कारण – Dukh ke karan”

  1. बहुत अच्छा और विस्तृत विश्लेषण किया गया है। पढ़कर अच्छा लगा।

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