Bhartiya rangmanch भारतीय रंगमंच की परिकल्पना। रंगमंच का इतिहास

भारत में रंगमंच की परंपरा आदिकाल से चलता आ रहा है अभिनव वामन आदि के रचनाओं में भी विस्तार से उल्लेख किया गया है भारतीय रंगमंच ने समय के साथ-साथ अपने विषयवस्तु में बदलाव भी किया है यह बदलाव हमे स्वाधीनता संग्राम में भी देखने को मिला इससे प्रेरित होकर भारतेन्दु और उनके समकालीन कवियों ने भरपूर मात्रा में नाट्य रचना की।

 

भारतीय रंगमंच की परिकल्पना

भारतीय रंगमंच निश्चित रूप से प्राचीन है भारतीय रंगमंच का उल्लेख प्राचीन शास्त्रों में भी मिलता है।इस रंगमंच का आरम्भिक स्वरूप कैसा था इसको लेकर आज भी मत भेद है।किन्तु यह सत्य है कि भारतीय रंगमंच जैसा कोई और रंगमंच इसके समकालीन नहीं थी।

Bhartiya rangmanch भारतीय रंगमंच का प्रारंभिक स्वरूप –

भारत में प्रारंभ में रंगमंच का स्वरूप क्या रहा होगा , उसका आरंभ किन लोगों द्वारा किस रूप में हुआ होगा ? इसकी कल्पना भर की जा सकती है। क्योंकि कोई ठोस और प्रमाणिक जानकारी अथवा साक्ष्य उपलब्ध नहीं है , जो प्रमाणित करें भारत में रंगमंच आरंभिक काल में कैसा था।
किंतु माना जाता है इसका आरंभ आदिम जातियों के नृत्यों या उन धार्मिक अनुष्ठानों से हुआ होगा जिसमें देवी – देवताओं की पूजा और उनके अनुकरण की प्रवृत्ति रही होगी। क्योकि आदि कल में लोग सामूहिक रूप से देवी कला का प्रदर्शन किया जाता तह और नृत्य संगीत का आयोजन किया करते थे।
मनुष्य की मूल प्रवृत्ति नृत्य गीतात्मक है। आदिम मनुष्य चाहे जहां रहा हो उसका जन्म स्थान चाहे जो भी हो परंतु नृत्य गीत उसके जीवन के अभिन्न अंग रहे हैं।

विल्हम बूंटे के अनुसार   – ” आदिम युग में नृत्य ही मनुष्य की अभिव्यक्ति का एकमात्र साधन था। हाथों , पैरों , कलाइयों और कोटि की विविध गतियों से जैसे उसके मनोभावों की अभिव्यक्ति के सहज प्रसव के लिए द्वार खुल जाता है।”

आदिम मनुष्य को यह नृत्य गीत किसी से सीखने की आवश्यकता नहीं थी। वह जन्म से ही लयात्मक रहा है , जितनी तीव्र उसकी भावना होगी उतनी ही तीव्र उसका लय होगा।

ये नृत्य गीत मूल में धार्मिक थे। वह देवी – देवताओं की पूजा इसी प्रकार के नृत्य गीतों द्वारा संपन्न करते थे। वैदिक युग में भी इस प्रकार के यात्रा नाटक प्रचलित थे।

मूल रूप में आदिम गीत – नृत्य प्रकृति के अनुकृति थे। भारतीय नृत्यों पर प्रकृति का पर्याप्त प्रभाव लक्षित होता है। ऋतुओं के अनुसार तथा प्रकृति के सौंदर्य से सजे रंगों से मिलता – जुलता परिधान धारण कर मन के भाव को प्रकृति के अनुरूप ढालते हुए नृत्य के प्रतीक आज भी उपलब्ध होते हैं।

आदिम अनुष्ठानों में सादृश्य जादू अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखता था। यदि वर्षा के समान ध्वनि की जाए तो वर्षा होगी , यदि पशु चर्म पहना जाए तो उसका शिकार में सफलता मिलेगी।

प्रागैतिहासिक नाटकों में मुखोटों का प्रयोग भी होता था , जिसके मूल में भी अनेक विश्वासों का संयोजन था। मुखोटों का प्रयोग सादृश्य जादू के रूप में होता था।
ऐसा विश्वास किया जाता था कि जो मुखौटा नर्तक पहने है , उसकी शक्ति को उसमें निवास है।
भरत के नाट्य शास्त्र में भी एक प्रकार के मुखोटों का वर्णन है , जिसे प्रति शीर्षक संज्ञा दी गई है।

 

रंगमंच का विकास Rangmanch ka vikas –

 

महाभारत में दो नाटकों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है रामायण नाटक , कॉबैर – रम्भाभिसार नाटक यह प्रमाणिक रूप से आज भी उपलब्ध है

वाल्मीकि रामायण (ई.पू. 500)  में राम के राज्याभिषेक के समय नटी नृतकों और गायकों का उल्लेख किया गया है।

नटी नृतकों के संघ हुआ करते थे। जिससे जनता अपना मनोरंजन करती थी। श्री किशोरीदास वाजपेई का तो अनुमान है कि वाल्मीकि ने रामायण नामक नाटक की ही रचना की थी जो अब उपलब्ध नहीं है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी – का कथन है कि ये उत्सव अन्य मंदिरों में भी होते होंगे इसके अतिरिक्त अन्य पारिवारिक उत्सव पर भी नाटकों का आयोजन होता था।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में शत्रु के पास राजकुमारों को छुड़ा लाने के निर्देश में नृतकों – नटों , गायकों तथा अभिनेताओं को शत्रु के राज्य में भेजने का निर्देश किया जाता था।

श्रीमद्भागवत में गोपियों के कृष्ण की विविध लीलाओं के अनुकरण करने का उल्लेख मिलता है। गोपियां वृक्ष , पुष्प , तुलसी  , पृथ्वी आदि से भगवान का पता पूछते – पूछते कातर हो गई है।

 

गुफामंच –

  • प्राचीन काल में गुफामंच का विशेष रूप से प्रचनल था। ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे ठोस प्रमाण सीतावेंगा , जोगीमारा (अशोक कालीन)  की गुफाएं हैं।
  • जोगीमारा की गुफा में जो लेख प्राप्त हुआ है , वह अशोक के समय की ब्राह्मी लिपि में लिखा हुआ है।
  • गुफा के भीतरी भाग में रंगमंच की व्यवस्था है। मंच तीन में शिव पर बने हैं , प्रत्येक मंच 7 फीट 6 इंच चौड़े हैं , तीनों की सतह एक दूसरे से 24 फीट ऊंची है यह मंच ढ़ालनुमा बने हैं।
  • भरत ने लिखा है कि रंगमंच का स्वरूप पहाड़ की गुफा होनी चाहिए।
  • उनके इसी कथन से प्रेरणा लेकर कालांतर में पहाड़ों की गुफाओं को भी नाट्य मंडप का रूप दिया जाने लगा। मध्य प्रदेश की रामगढ़ी पहाड़ी पर सीतावेंगा गुफा का आकार नाट्यमंडप जैसा है।
  • रामगढ़ पहाड़ी की सीतावेंगा गुफा संसार की मोह माया से विरक्त साधू सन्यासियों का स्थान नहीं था , बल्कि बिना किसी संकोच के हम नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि वह स्थान ऐसा स्थान था जहां कविता पाठ होता था , जहां प्रेम के गीत गाए जाते थे , और नाट्य अभिनय हुआ करते थे।
  • भारतीय इतिहास के उस प्राचीन काल में भी पर्वत की गुफाओं में रंग मंडप की व्यवस्था हुआ करती थी। इसका संकेत कालिदास ने भी अपने मेघदूत में दिया है। अलकापुरी से निष्कासित यक्ष मेघ से कहता है – ” जब तुम विदेशिया से आगे बढ़ोगे तो…………………. पहाड़ी पर उतर जाना वहां तुम्हें नागराजन शीलावेश में कला विलास का आनंद लेते मिलेंगे। “
  • पर्वतीय गुफा में नाट्य मंडप की व्यवस्था अन्य भी कई स्थलों पर देखने को मिलती है। यथा एलोरा , नासिक , जूनागढ़ , अमरकोट आदि। इन सभी की पर्वतीय गुफाओं को नाट्य मंडप जैसे आकार पुरातात्विक सर्वेक्षण के ग्रंथों में देखे जा सकते हैं।
  • भरत के विकृष्ट (आयताकार) नाट्य मंडप से यह गुफा बहुत अंशों में मिलती जुलती है।

 

भरत का रंगमंच विधान समतल भूमि पर –

 

  • भारतीय रंगमंच का आरंभ हिमाचल शिखरों की छाया में एक विजय उत्सव के रूप में हुआ।
  • उसके वास्तु कलात्मक स्वरूप को और रंग विधान को देखकर सम्राट नहुष उसके मन में विविध शिल्प और कलाओं के समायोजन को अपने देश की समतल भूमि पर भी संपन्न करने की इच्छा पैदा हुई।
  • इस प्रश्न का संकेत स्वयं भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में दिया है।
  • नाट्यशास्त्र की रचना काल में नाटक का व्यवहारिक रूप ही नहीं वरन शास्त्रीय रूप भी अपने चरम उत्कर्ष पर पहुंच गया था।
  • भरत ने अपने नाट्य शास्त्र में रंगमंच के निर्माण की बात कही है लेकिन उनके कुछ वर्णन ऐसे भी हैं जिनसे पता चलता है कि नाटकों का प्रदर्शन खुले प्रांगण हो या मंदिर में होता था।
  • भरत ने यह भी बताया कि कैसा नाटक कौन सा समय में खेला जाना चाहिए –
    १ जो नाटक कानों को मधुर लगता है सदाचार की प्रशंसा में प्रस्तुत किया जाता है। दिन के पहले भाग में खेला जाना चाहिए।
    २ जिसमें चरित्र कुलीन हो ध्वनियों की भरमार हो मध्याह्न में खेला जाना चाहिए।
    ३ ऐसा नाटक जहां संगीत नृत्य और वाद्य वृन्द हो कथानक एक प्रेम कथा से संबंधित हो , संध्या के समय खेला जाना चाहिए।
    ४ जिनमें चरित्र की महानता दिखाई गई हो , करुण भाव प्रमुख हो , प्रातः काल में खेला जाना चाहिए। इस प्रकार के नाटकों से नींद भाग जाती है।
    ५ नाटक दोपहर , आधीरात , गोधूलि बेला या रात्रि भोजन के समय प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए।
    ६ भरत के अनुसार नाटक के लिए एक उपयुक्त स्थान अवश्य देखा जाना चाहिए , स्थल के चुनाव में कई बातों का ध्यान रखना चाहिए।
  • मंच , अभिनेता उसका अभिनय , सभी कुछ देखना और सुनना प्रत्येक दर्शक के लिए उपलब्ध होना चाहिए। जो भी स्थल चुना जाए वह नाटक में होने वाली घटनाओं के लिए उचित और पर्याप्त हो।
  • अगर नाटक क्षेत्र में श्रव्य अधिक है तो शोरगुल से दूर होना चाहिए।

 

नाट्य मंडप की संरचना –

  • नाट्यशास्त्र के कर्ता के अनुसार नाट्यमंडप की कल्पना सर्वप्रथम विश्वकर्मा ने की थी।
  • भरत ने नाट्यमंडप का वर्गीकरण दो आधारों पर किया १ आकार २ प्रकार
  • नाट्य मंडप तीन प्रकार के कहे गए हैं –
    १ विकृष्ट (आयताकार)
    २ चतुरस्त्र ( वर्गाकार)
    ३ त्र्यस्त्र ( त्रिभुजाकार)

 

  • आकार की दृष्टि से प्रत्येक तीन प्रकार का होता है
    १ ज्येष्ठ  108 हाथ
    २ मध्यम 64 हाथ
    ३ अवर 32 हाथ
  • अभिनव गुप्त ने नाट्यमंडप के 18 भेद माने हैं , परंतु साथ ही यह भी कहा है कि इसमें से सभी प्रचलित नहीं है।

 

ज्येष्ठ –

  • ज्येष्ठ नाट्यमंडप की एक भुजा 108 हाथ की होती है , मध्यम की 64 हाथ ,  तथा अवर की 32 हाथ।
  • विष्णु धर्मोत्तर पुराण में केवल 2 प्रकार के नाते मंडप कहे गए हैं – विकृष्ट , चतुरस्त्र।
  • भाव प्रकाश में तीनों नाट्य मंडप का जिक्र हुआ है।
  • प्रयोग निर्धारण – प्रयोग की दृष्टि से ज्येष्ठ प्रकार का नाटकमंडप देवताओं के लिए मध्यम राजाओं के लिए और अन्य सामान्य जनता के लिए।

 

  • उपर्युक्त सभी प्रकारों में मध्यम प्रकार के नाट्य मंडप सर्वश्रेष्ठ माने गए हैं , जिसके मुख्यतः दो कारण है –
    प्रथम तो अत्यंत बृहत अथवा छोटे नाट्य मंडप में अत्यंत उच्च स्वर से किया गया उच्चारण विस्वर हो जाता है। निकट बैठे प्रेक्षकों के संदर्भ में दूर बैठे दर्शकों को अधिक उच्च होने के कारण कष्टदायक तथा दूर बैठे दर्शकों को सुनाई ना दे सकने के कारण कष्टदायक होता है।
  • सर्वप्रथम नाट्य शास्त्र में भूमि परीक्षण का आदेश किया जाता है। नाट्य मंडप के लिए प्रयोग की जाने वाली भूमि दृढ़ हो , भूकंप आदि क्षेत्रों के समीप ना हो।ठोस रेतीली ना हो , तथा उसकी मिट्टी काली अथवा पीली होनी चाहिए।
  • कार्य प्रारंभ करने से पहले भूमि को स्वच्छ कर हल चलाना चाहिए , हड्डी , कील , कपाल आदि निकाल देना चाहिए।
  • विकृष्ट मंडप के लिए 64 हाथ लंबी और 32 हाथ चौड़ी धरती सूत्र से रेखांकित की जानी चाहिए।
  • इसका विभाजन चार भागों में किया जाता है –
    १ नेपथ्य
    २ रंगशीर्ष
    ३ रंगपीठ
    ४ प्रेक्षकोपरवेशन

 

  • चतुरस्त्र नाट्य मंडप की प्रत्येक भुजा 32 हाथ की होती है , इसको भी चार भागों में विभाजित किया जाता है।
  • त्र्यस्त्र नाटक के लिए केवल इतना कहा गया है कि यह नाटक त्रिकोणात्मक बनाना चाहिए।
  • भरत द्वारा वर्णित रंग मंडपम को सरल भाषा में कहना चाहे तो कह सकते हैं कि नाट्यशाला के 2 भाग होते हैं। पीछे का भाग अभिनय के लिए और आगे का भाग दर्शकों के लिए होता है। अभिनय के लिए निर्धारित भाग – नेपथ्यगृह , रंगशीर्ष , और रंगपीठ भागों में विभाजित किया जाता है।

 

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