आज के लेख का बिंदु आधुनिक भारत में प्राचीन शिक्षा के उद्देश्य तथा आदर्श को वर्तमान समय में स्थापित करने से संबंधित है। इस लेख का अध्ययन आप शिक्षा के अध्ययन में कर सकते हैं।यह पाठ्यक्रम शिक्षक बनने के पाठ्यक्रम में विशेष रुप से शामिल किया जाता है। विशेष रूप से B.Ed तथा बी.टी.सी में इस विषय का अध्ययन किया जाता है।
आधुनिक भारत में प्राचीन शिक्षा के उद्देश्य तथा आदर्शों की उपयुक्तता
वेदकालीन तथा प्राचीन शिक्षा धर्म पर आधारित थी। इसका गौरवशाली इतिहास आज भी हमें उसके महत्व को बताता है। प्राचीन शिक्षा विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण, आदर्श की स्थापना तथा समाज के लिए उपयोगी हुआ करती थी।शिक्षा का मूल उद्देश्य विद्यार्थियों को जीवन की विभिन्न परिस्थितियों के लिए तैयार करना था। समाज तथा परिवार में वह किस प्रकार एक श्रेष्ठ व्यक्ति का निर्वाह कर सकें इसकी सीख दी जाती थी। यह शिक्षा विद्यार्थियों को दीर्घकालिक लाभ देती थी।
गुरु और शिष्य का संबंध जीवन पर्यंत चला करता था। दोनों शिक्षा की भूमिका में सक्रिय रहा करते थे। गुरुकुल के बाद भी शिक्षा की उपयोगिता तथा उसकी कमी, विशेष पर भी ध्यान दिया जाता था। संपूर्ण शिक्षा का क्रियाकलाप गुरुकुल में होता था।किसी प्रकार की परीक्षा या उपाधि का भी विधान नहीं था। जबकि आधुनिक शिक्षा में परीक्षा तथा उपाधि की विशेष भूमिका है।
वर्तमान परिस्थिति में विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास को काफी हद तक नजरअंदाज किया जा रहा है। जबकि प्राचीन शिक्षा में ऐसा नहीं था। हम प्राचीन शिक्षा की अवहेलना कर विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं।
वर्तमान शिक्षा पद्धति में प्राचीन शिक्षा पद्धति का समावेश कर सकते हैं।
(1) धार्मिक भावनाओं का विकास
प्राचीन समय में शिक्षा पद्धति धर्म पर आधारित थी। संपूर्ण ज्ञान तथा विज्ञान धर्म से जुड़ा हुआ था। धर्म से जुड़कर विद्यार्थी अपने शिक्षा के उद्देश्यों को पूर्ण किया करते थे।
संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था गुरुकुल पर आधारित थी। विद्यार्थी को गुरुकुल में रहकर शिक्षा ग्रहण करना पड़ता था। गुरुकुल का वातावरण शुद्ध तथा अनुशासन से परिपूर्ण था। तत्कालीन शिक्षा का आदान-प्रदान मौखिक रूप से हुआ करता था।
विद्यार्थियों की योग्यता तथा उसके ग्रहण करने की शक्ति आदि की परीक्षा मौखिक हुआ करती थी। समय-समय पर विद्यार्थियों का विद्वानों से शास्त्रार्थ तथा वाद-विवाद का आयोजन किया जाता था। जिससे विद्यार्थियों की योग्यता का आकलन हो पाता था।
धर्म तथा अनुशासन में रहते हुए विद्यार्थी सौम्य तथा जीवन के उद्देश्य आदि को भलीभांति समझते हुए शिक्षा ग्रहण करते थे। धीरे-धीरे शिक्षा से धर्म की भावनाओं को हटा दिया गया जिससे विद्यार्थियों में नैतिक विकास, उच्च आदर्श आदि की कमियां देखी जा सकती है।
भारत में विभिन्न शिक्षा आयोग का गठन हुआ, जिन्होंने अपने अध्ययन में पाया, प्राचीन शिक्षा धर्म से जुड़ी थी जिससे विद्यार्थी काफी ज्यादा सक्रिय और प्रभावित रहा करते थे, जो वर्तमान शिक्षा में देखने को नहीं मिलती।इन आयोग ने अपने पाठ्यक्रम में धर्म को जोड़ने का भी सुझाव दिया। भारत धर्मनिरपेक्ष देश होने के नाते पाठ्यक्रम में धर्म को जोड़ नहीं पाता।
शिक्षा के उचित आदान-प्रदान के लिए वर्तमान शिक्षा पद्धति में धर्म को जोड़ना अति आवश्यक है। जिसके माध्यम से विद्यार्थी जीवन के मर्म को तथा स्वयं को जानने का प्रयत्न करता है। इस विधि से उसकी रूचि पाठ्यक्रम में और बढ़ती जाती है।यह विद्यार्थी के मानसिक विकास के लिए भी आवश्यक है। धर्म उसे अनुशासन में बांधे रखता है, जो शिक्षा के लिए प्राथमिक आवश्यकता में से एक है।
आज की शिक्षा ने विद्यार्थियों को केवल और केवल व्यवसाय के साथ जोड़ दिया है। जिससे वह स्वयं को कभी जान नहीं पाते ,जिसके कारण तनाव आदि की समस्या उन्हें जीवन में देखने को मिलती है जिसका हल उनके पास नहीं होता।
अतः आधुनिक शिक्षा में प्राचीन शिक्षा के धर्म विषय को कुछ हद तक जोड़ा जाना चाहिए जो विद्यार्थियों के हित में है।
(2) चरित्र निर्माण
प्राचीन शिक्षा पद्धति में चरित्र निर्माण पर विशेष बल दिया जाता था। विद्यार्थियों में चरित्र निर्माण कर उन्हें समाज, परिवार तथा स्वयं के लिए तैयार किया जाता था। इसके माध्यम से विद्यार्थी में मानव के सर्वोच्च अनुशासन की प्राप्ति के साथ-साथ मोक्ष की प्राप्ती का मार्ग भी मिलता था।
इस पाठ्यक्रम के माध्यम से छात्रों में नैतिक आदर्शों को विकसित किया जाता था। जिसके माध्यम से विद्यार्थी सदाचार का पालन करते हुए कर्तव्यनिष्ठ तथा आत्म संयम, धर्म के प्रति उत्साह, समाज के प्रति उदार की भावना रखता था। यह सभी योग्यता विद्यार्थी के चरित्र निर्माण की द्योतक थी।आधुनिक शिक्षा पद्धति चरित्र निर्माण के विषय को अनदेखा किया गया है।
भारत सरकार के द्वारा गठित शिक्षा आयोग ने इस विषय को सदैव उजागर किया है और चरित्र निर्माण पर बल देते हुए इसे पाठ्यक्रम में शामिल करने की वकालत भी की है।
वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की कमियां है जो समाज में हमें बेईमानी जो भ्रष्टाचार व्यभिचार आदि देखने को मिलते हैं। इन सभी पर काफी हद तक कम पाठ्यक्रम में चरित्र निर्माण का विषय जोड़कर दूर कर सकते हैं। सरकार को इस दृष्टि में कार्य करना चाहिए।
चरित्र निर्माण का विषय पाठ्यक्रम में शामिल कर हम आदर्श राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं।
(3) नागरिक तथा सामाजिक कर्तव्यों का पालन
प्राचीन समय में व्यक्ति अपने राष्ट्र के प्रति पूर्ण समर्पित रहा करता था। वह अपने राजा के राज्य को अपना देश मानता और उसकी देशभक्ति के लिए सर्वस्व न्योछावर करने की भावना भी रखता था।विकट परिस्थितियों में वह राजा की सेना में शामिल होकर आक्रमणकारियों से युद्ध भी किया करता था। इस युद्ध में उसके प्राण तक संकट में होते थे, ऐसी भावना वर्तमान समय में देखने को नहीं मिलती है।
आज व्यक्ति अपने सामाजिक कर्तव्य का पालन या तो नहीं करता, या अनुमन्य ढंग से पालन करता है।
इसके मूल स्रोत को अध्ययन करें तो स्पष्ट होता है हमारे पाठ्यक्रम में नागरिक तथा सामाजिक कर्तव्यों का विषय हास्य स्थिति पर है। विद्यार्थियों को अपने सामाजिक कर्तव्य का ज्ञान नहीं होता और उसके प्रति जागरूक करने का कोई प्रबंध शिक्षा व्यवस्था में नहीं है।
सरकार को अपने पाठ्यक्रम में इस विषय को शामिल करना चाहिए और आरंभिक शिक्षा से उन्हें सामाजिक कर्तव्य और राष्ट्र के प्रति उनके दायित्व को समझाना चाहिए। इस पाठ्यक्रम के अध्ययन से विद्यार्थी बड़ा होकर अपने राष्ट्र के प्रति सेवा की भावना रखते हुए, अपने कर्तव्यों का पालन कर सकता है।
(4) व्यक्तित्व का विकास
प्राचीन शिक्षा व्यवस्था में विद्यार्थी तथा गुरु दोनों सक्रिय भूमिका में रहा करते थे। गुरु अपने शिष्यों का चयन करते समय विभिन्न प्रकार की योग्यता तथा पात्रता को देखा करते थे।विद्यार्थी अपने गुरु के द्वारा दिखाए गए मार्ग का अनुसरण करते हुए मोक्ष की प्राप्ति के लिए तत्पर रहा करता था।
इस शिक्षा पद्धति में वह स्वयं को चरित्रवान, आदर्श से युक्त तथा विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों चुनौतियों का सामना करने की क्षमता को ग्रहण करता था।इस पद्धति में विद्यार्थी का एक अभूतपूर्व चरित्र विकसित होता था जो सामान्य मानव से काफी श्रेष्ठ होता था।
आज की शिक्षा व्यवस्था का व्यवसायीकरण हो गया है। शिक्षा का मूलभूत उद्देश्य व्यवसाय तथा नौकरी प्राप्त करना होता है।
पूरी शिक्षा व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थियों को आर्थिक रूप से मजबूत करने से संबंधित हो गया है। जिसमें विद्यार्थियों के नैतिक, आदर्श तथा व्यक्तित्व विकास को नजरअंदाज किया जाता है।
प्राचीन शिक्षा व्यवस्था पर सम्यक दृष्टि रखते हुए उसके व्यक्तित्व विकास के पाठ्यक्रम को वर्तमान शिक्षा पद्धति से जोड़ा जाना चाहिए।
(5) संस्कृति की सुरक्षा तथा प्रसार
पूरे विश्व में भारत की पहचान सांस्कृतिक देश के रूप में होती है। यहां प्राचीन समय से धर्म का विशेष महत्व है। अतः प्राचीन समय में शिक्षा का मूलभूत आधार धर्म तथा संस्कृति था। यह आदिकाल से परंपरा चली आ रही है।
अपनी संस्कृति तथा धर्म को अगली पीढ़ी तक शिक्षा तथा नैतिक विकास के माध्यम से पहुंचाया जाता था। इसके माध्यम से भारत की संस्कृति संरक्षित रही और हजारों-लाखों पीढ़ियों ने इस परंपरा को जीवित रखा है।
वर्तमान समय में धर्म संस्कृति का निरंतर ह्रास देखने को मिल रहा है। भारत की संस्कृति को बर्बाद करने में विदेशी पीछे नहीं है। निरंतर धन, बल तथा छल के माध्यम से भारत की संस्कृति को नष्ट कर रहे हैं। जिसका एकमात्र कारण वर्तमान समय की पीढ़ी को संस्कृति तथा धर्म के विषय में जानकारी ना होना है।
इन सभी बनाए गए चक्रव्यूह में फंसकर आज की युवा पीढ़ी अपने धर्म तथा संस्कृति से दूर होती जा रही है। उन्हें धर्म और संस्कृति से जोड़ने के लिए पाठ्यक्रम में कुछ ऐसे विषय जोड़ने होंगे जो उन्हें उनके संस्कृति के महान और गौरवशाली अतीत को बता सके, उन्हें गौरवान्वित महसूस करा सके। इसके साथ ही हम भारतीय संस्कृति को जीवित रख सकते हैं।
(6) सामाजिक कुशलता
आधुनिक काल में सामाजिक का वह ताना-बाना नहीं है, जो प्राचीन काल में हुआ करता था। प्राचीन काल में संयुक्त परिवार का प्रचलन था सभी एक समाज में एक साथ मिलकर रहा करते थे। समाज के सुख-दुख में स्वयं को शामिल किया करते थे। वर्तमान समय में इसकी पर्याप्त कमी देखने को मिलती है।
आज का परिवार एकल हो गया है, स्वयं तक सीमित रखने की प्रथा समाज में प्रचलित है। जिसके कारण वह समाज से दूर हो गया है। शहरों में लोग एक-दूसरे को नहीं जानते। किसी के सुख-दुख में शामिल होना तो दूर का विषय है।
प्राचीन समय की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाना था। वह समाज में अपना किस प्रकार सर्वश्रेष्ठ योगदान दे सके इसके लिए तैयार करना था।
विद्यार्थी शिक्षा के उपरांत अपने शिक्षा का प्रयोग समाज की उन्नति के लिए किया करता था। वर्तमान शिक्षा पद्धति में सामाजिक कुशलता का विषय गंभीरता से नहीं लिया जाता। जिसके कारण व्यक्ति के विकास में सामाजिक कुशलता का विकास नहीं हो पाता।
सरकार को उपरोक्त विषयों पर ध्यान देते हुए इन्हें पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए जो व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में मुख्य घटक है।
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निष्कर्ष
उपरोक्त अध्ययन से स्पष्ट होता है कि, आधुनिक भारत में प्राचीन शिक्षा के उद्देश्यों को समाहित कर हम विद्यार्थी के माध्यम से परिवार तथा समाज की उन्नति सुनिश्चित कर सकते हैं। यह उन्नति राष्ट्र की उन्नति का एक सशक्त माध्यम है। प्राचीन समय के विषयों को शिक्षा पद्धति में समाहित कर विद्यार्थी के उत्तम चरित्र का निर्माण कर उनमें कुछ आदर्श स्थापित किया जा सकता है।
आशा है यह लेख पसंद आया हो, आपके ज्ञान की वृद्धि हो सकी हो। संबंधित विषय से प्रश्न पूछने के लिए कमेंट बॉक्स में लिखें।