साधारणीकरण , उत्त्पतिवाद , अनुमितिवाद ,
भुक्तिवाद , अभिव्यक्तिवाद।
साधारणीकरण का सामान्य अर्थ है असाधारण को साधारण कर देना अथवा हो जाना।
रस का सूत्र धारक भरतमुनि थे जिन्होंने
” विभावानुभावसंचारीसंयोगद्रसनिष्पत्ति ” की विवेचना की थी।
साधारणीकरण के चार व्याख्याकार हुए हैं –
१ भट्ट्लोलट
२ श्री शंकुक
३ भट्नायक
४ अभिनव गुप्त
भट्ट्लोलट –
जो भाव ऐतिहासिक रचनाकार की है वह भाव दर्शक की कैसे हो जाती है ?
जवाब में भट्ट्लोलट ने साधारणीकरण की प्रक्रिया का संदर्भ विवेचित किया।
काव्य में अभिधा व्यापार के बाद भावकृत व्यापार के द्वारा सामाजिक का साधारणीकरण हो जाता है , और तीसरे व्यापार भोजकत्व व्यापार की पृष्ठभूमि हो जाती है।
भट्ट्लोलट ने ” उत्पत्तिवाद “ का सिद्धांत दिया।
संबंध अथवा संयोग – > उत्पादक – उत्पाद्य
निष्पत्ति / उत्पत्ति -” विभावानुभावसंचारीसंयोगद्रसनिष्पत्ति ” – > उत्पादक
रस भाव – उत्पाद्य
अनुकार्य ( पौराणिक / ऐतिहासिक पात्र ) – अनुकर्ता -(अभिनेता)
भट्ट्लोलट के अनुसार मूल रूप से स्थाई भाव ऐतिहासिक पात्र में होता है। (अनुकार्य)
गौण रूप से अनुकर्ता में स्थाई भाव होता है , क्योंकि दर्शक अभिनय से घटना को समझ लेता है। वह ऐतिहासिक घटना को याद नहीं करता।
रस की सफलता तभी है , जब दर्शक को रस का आनंद मिले। इसके लिए दर्शकों का ‘ सहृदय ‘ होना आवश्यक है।
श्री शंकुक – अनुमानवाद , अनुमितिवाद
संबंध – अनुमाप्य , अनुमापक – संबंध ,
निष्पत्ति – अनुमति / अनुमान।
शंकुक के अनुसार रस की निष्पत्ति को अनुमति या अनुमान किया जा सकता है।
शंकुक के विचार का खंडन किया गया।
अनुमान का संबंध बुद्धि से है , वही रस का संबंध अनुभूति / हृदय से है।
भट्नायक / भुक्तिवाद –
भट्नायक को साधारणीकरण का प्रथम व्याख्याकार माना गया है। संबंध / संयोग – भोज्य / भोज्य
निष्पत्ति – भक्ति ( खाना , भोज्य )
भट्नायक के अनुसार नाटक तीन चरणों से गुजरता है।
१ अभिधा व्यापार –
दर्शक को नाटक का सामान्य ज्ञान होता है।
२ भावकत्व व्यापार –
विभाव , अनुभाव , व्यभिचारी आदि के संयोग से भाव उत्पन्न होता है। व्यक्ति राग – द्वेष भूल जाता है।
३ भोजकत्व
रस का आस्वादन होता है।
भट्नायक ने रस को सामाजिक के हृदय में माना है।
अभिनव गुप्त / अभिव्यक्तिवाद
संबंध / संयोग – व्यंग्य – व्यंजक संबंध
निष्पत्ति – अभिव्यक्ति
अभिनव गुप्त – के अनुसार रस भोग की वस्तु नहीं है , यह समाज में विद्यमान रहता है। किंतु सामाजिक को देखने से रस की निष्पत्ति होती है।
भट्नायक के मत में अभिनवगुप्त ने परिवर्तन किया और कहा भावकत्व भोजव्यापार को व्यर्थ है क्योंकि रस तो अभिधा व्यापार में ही मिल जाता है।
साधारणीकरण –
असाधारण का साधारण हो जाना अपनी विशेषता खासियत को त्याग देना , साधारणीकरण कहलाता है।
हो सकता है कि यह नाटक मंत्री , पुलिस , मजदूर , दुखी , हर्षित व्यक्ति देख रहा हो तो सिर्फ सहृदय दर्शक बने जाता है। साधारणीकरण की सफलता तभी है जब दर्शक आत्मसात हो जाए अपने राग – द्वेष भूल जाए।
साधारणीकरण के कारण –
रस / अनुभूति / भावनाएं इनके आधार पर साधारणीकरण होता है।
साधारणीकरण के उपरांत भाव –
१ ऐतिहासिक पात्रों पर।
२ वर्णित पात्रों पर।
३ पात्रों के भाव पर।
४ कवि की कल्पना पर अनुभूति पर।
आश्रय – जिनके मन में भाव आ रहा है।
आलंबन – जिनके कारण यह भाव आ रहा है।
उद्दीपन – वातावरण।
रामचरितमानस
दर्शक – राम
यदि राम रोता है तो दर्शक को रोना आता है , और राम क्रोध करता है तो , दर्शकों को भी क्रोध आता है। यहां साधारणीकरण का दुर्लभ उदाहरण देखने को मिलता है।
किंतु यह राम कौन सा है ?
- तुलसी का राम
- पौराणिक पात्र राम
- टी.वी का राम
- पुस्तक का राम
हिंदी में भी आचार्यों ने रस सिद्धांत पर चर्चा की – १ आचार्य रामचंद्र शुक्ल , २ डॉ नगेंद्र।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल –
आश्रय के साथ सहृदय को तादात्म्य होता है। साधारणीकरण आलंबन का नहीं आलंबनत्व का होता है।
आलंबन के प्रति जो भाव है उसका साधारणीकरण होता है। जैसे –
राम (आश्रय) – सीता ( आलंबन ) = प्रेम ( साधारणीकरण )
कुछ आलोचकों ने आरोप लगाया है कि , जिस प्रसंग में वासना विद्यमान हो उसका साधारणीकरण कैसे संभव है ?
रावण ( आश्रय ) – सीता ( आलंबन )
साधारणीकरण नहीं होता किंतु आह्लाद होता है , आनंद की प्राप्ति होती है , यहां रस मध्यम कोटि का है।
डॉ नगेंद्र –
डॉ नगेंद्र को इस मध्यम कोटी आचार्य शुक्ल के विचार पर आपत्ति है। उनका मानना है कि लेखक की अनुभूति उसकी भावना का साधारणीकरण होता है।
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