विरेचन सिद्धांत संछिप्त नोट्स virechan notes

विरेचन सिद्धांत संछिप्त नोट्स ( full hindi notes )

विरेचन सिद्धांत Virechan Sidhant

अरस्तु का विरेचन सिद्धांत  –

  • प्रसिद्ध आलोचक लेसिंग विरेचन से अरस्तु का अभिप्राय प्रेक्षक के नैतिक सुधार से है। दुखांतकियों में अभिव्यक्त करुणा और भय के दृश्यों को देखने के पश्चात मनुष्य अपने नैतिक जीवन के प्रति अधिक जागरूक हो जाता है। नैतिक त्रुटि – विच्युति के कारण त्रासदी के नायक की विभीषिका को भली प्रकार देख लेने के बाद दर्शक में नैतिक चेतना के प्रति सजगता आ जाती है।
  • इस प्रकार विरेचन मनुष्य को नैतिक मूल्यों की और अग्रसर करने की प्रवृत्ति का द्योतक है , और मानसिक संतुलन को बनाए रखने की प्रवृत्ति का द्योतक भी है।
  • अरस्तु की दृष्टि में विरेचन भौतिक सुधार के सिद्धांत का प्रतिपादक है , ऐसा कुछ आलोचक नहीं मानते।
  • आलोचक विलियम मैटिनल डिक्शन के अनुसार विरेचन से अरस्तु का अभिप्राय नैतिक सुधार नहीं रहा होगा , अपितु उनका अभिप्राय कलात्मक सौंदर्य के उस अनुभूतिगत आनंद से था जिससे मानसिक शांति प्राप्त होती है।
  • जिस प्रकार अरस्तू ने त्रासदी में नायक के आधार पर करुण और भय के भाव को उजागर किया है , वह वस्तुतः कलात्मक सौंदर्य के अनुभूति और आनंद के लिए है।
  • उनकी पृष्ठभूमि में प्लेटो ने कला पर लगे आरोप का उत्तर देना था जिसमें उन्होंने कला को भाव – उत्तेजना पैदा करने का कारण माना था , और जिस भाव – उत्तेजना में बहकर सामान्य नागरिक पथभ्रष्ट हो जाता है।
  • अरस्तु ने इसी का उत्तर देते हुए यह कहा कि त्रासदी या अन्य कला में उत्तेजना मात्र भावोतेजना के लिए नहीं होती है अपितु उनका लक्ष्य अतिरिक्त भावों से दर्शक को मुक्ति दिलाना होता है।
  • कुछ लोग विरेचन सिद्धांत को धर्म के साथ जोड़कर भी देखते हैं और मानते हैं कि विरेचन से अरस्तु का अभिप्राय धर्म दृष्टि का विकास है। प्लेटो ने यह कहा था कि त्रासदियों में देवी – देवताओं के चरित्रों को बिगाड़ कर अनास्था पैदा की जाती है , और मनुष्य की धर्म भावना आहत होती है।
  • अरस्तु ने इसके उत्तर में ही विरेचन सिद्धांत की अवधारणा की होगी , और यह माना कि यह एक ऐसी नैतिक शक्ति है जिससे फेट कहते हैं। जो धर्म विरुद्ध आचरण करने वाले को दंडित करने के लिए सजग रहती है। त्रासदियों में इसी प्रकार का दंड का विधान किया जाता है और इसी प्रकार विरेचन सिद्धांत से अभिप्राय धर्म दृष्टि को विकसित करने से है।
  • पश्चिमी नाटक सिद्धांत के मूल विचारक अरस्तु ही हैं। वह लिखते हैं कि त्रासदी में भय और करुणा को अद्भुत करके संबंध दिखाया जाता है। इस प्रकार भावों के शमन से उत्पन्न शांति का जो रूप प्रकट होता है वह विरेचन कहलाता है।

 

प्लेटो –

  • प्लेटो प्रत्ययवादी दार्शनिक है। प्रतिवाद के अनुसार प्रत्यय अर्थात आइडिया ( Idea ) ही परम सत्य है। वह नित्य और अखंड है , एवं परमात्मा ही उसका स्रष्टा है।
  • यह दृश्यमान सृष्टि उस परमात्मा की कृति है और इस दृश्यमान जगत का अनुकरण करके कवि रचना करता है।
  • अरस्तू ने अनुकरण शब्द को अपने ग्रु ‘ प्लेटो ‘ से लिया है , पर उसमें निहित निम्नता को निरस्त कर दिया है।
  • विरेचन ” कथार्सिस ” मूलतः चिकित्साशास्त्र का विषय है।
  • मानसिक शारीरिक अशुद्धियों का निष्कासन करके साम्यवाद को प्राप्त करना विरेचन कहलाता है।
  • चिकित्सा शास्त्र में भी विकार को पहले बढ़ाया जाता है और फिर धीरे-धीरे उसको जड़ से समाप्त किया जाता है। ठीक उसी प्रकार विरेचन पद्धति में दर्शक के मन की अशुद्धियों , उसके मानसिक विकारों को निकालकर साम्यवाद अर्थात नाटक के मूल को स्थापित किया जाता है।
  • राजनीति शास्त्र में अरस्तु ने किसी देवता द्वारा अवशिष्ट व्यक्ति को उग्र संगीत से किए उपचार करने का जिक्र किया है।
  • उग्र संगीत पहले पहले पीड़ित व्यक्ति के आवेश को बढ़ा देता है और फिर धार्मिक उन्माद को शांत करता है।
  • इस प्रकार अरस्तु ने संगीत के विवेचक प्रभाव का वर्णन किया है।
  • प्लेटो ने नाटक को मानव चित्र को दूषित करने वाला बताया है।
  • प्लेटो ने कहा कि ” नाटक दर्शक में भय आदि निम्न कोटि के भावों का संचार करता है”
  • अरस्तू ने प्लेटो की इस धारणा से असहमति जताई है।
  • अरस्तु ने कहा – ‘ भाव का दमन हितकर नहीं , हानिकारक है। उसे दमित नहीं करना चाहिए , बल्कि उसे संतुलित करना चाहिए। ‘
  • अगर किसी आत्मीय पर पीड़ा की आशंका हो तो भय और करुण दोनों ही भाव जागते हैं। करुण और भय , दुख भाव है इसकी परिणति आनंद में होती है।

 

लोंजाइनिस

  • लोंजाइनिस कहते हैं – ” देवताओं से हमारी किन अर्थों में समानता है ? परोपकार और सत्य में “
  • उदात्त का प्रभाव श्रोता को सम्मोहित कर लेता है , जो हमारा मनोरंजन होता है हमें विस्मित करता है।

 

क्रौंचे

क्रौंचे के अनुसार अंतः प्रज्ञा एक प्रकार का आंतरिक ज्ञान है , जो स्वयं प्रकाश है। उसके लिए साधनों की आवश्यकता नहीं पड़ती।

 

आई.ए.रिचर्ड्स

वह कहते हैं कि कलाएं ही वह माध्यम है जिसके द्वारा कालांतर अपनी अनुभूतियों को दूसरों तक संप्रेषित करता है।

 

कलाकार की अनुभूति और जनसामान्य की अनुभूति में ततत्व कोई भेद नहीं होता। अंतर होता है तो अनुभूति की अभिव्यक्ति में तथा अनुभूति की तीव्रता में।

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