bharat durdasha rachna shilp
भारत दुर्दशा का रचना शिल्प
भारत दुर्दशा के रचना शिल्प कि यह सर्वोपरि विशेषता है कि यह राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति की दृष्टि से जितना महत्वपूर्ण है , उतना ही भाषा के प्रयोग की दृष्टि से निर्विवाद चुकी है। भारतेंदु हरिश्चंद्र भाषा के प्रति एक सजग प्रहरी थे , इसलिए उनके इस नाटक में भी उनकी सजगता पात्रों की भाषा , उनके संस्कार , प्रवृतियां एवं मूल्य चेतना जैसे अनेक स्तरों पर दिखाई देती है। भारत दुर्दशा का गद्य खड़ी बोली में है तो पद्य प्रायः ब्रज भाषा में प्रयुक्त हुआ है। जैसे ब्रज भाषा में –
” रोबहुँ सब मिलके आबहू भारत भाई !
हा – हा भारत दुर्दशा ना देखी जाई। ।”
इस नाटक के भाषा की यह विशेषता भी स्पष्ट है कि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इसमें पद्य रचनाओं को भी खड़ी बोली का आवरण प्रदान किया है –
” कोड़ी – कोड़ी को करूँ मैं सबको मोहताज ,
भूख प्राण निकालूं इनका तो मैं सभ्य राज। ।”
शब्द भंडार की दृष्टि से भी यह नाटक अत्यंत समृद्धशाली है एवं लोक निकट है। इसमें तत्सम -तद्भव तथा देशज – विदेशज में से केवल किसी एक के प्रति आग्रह शीलता नहीं है। फारसी नाटकों की तरह नाही इसमें फारसी शब्दों की भरमार है और ना ही पारंपरिक रंगमंच की तरह संस्कृत निष्ठ है यह पराया ब्रज भाषा में है। नाटक की भाषा मानवता का परिचायक है तो खलनायकों की भाषा में उदंडता का भाव लक्षित होता है। ग़ज़ल उर्दू मैं है जिसमें अरबी फारसी शब्दों का भी व्यवहार हुआ है उदाहरण के लिए
ब्रज भाषा – ” सबके पहिले जेही ईश्वर धन-बल दीन्हो। “
अरबी फारसी – काका , का का सिजदा , रोजग , नयामत।
अंग्रेजी शब्द – ” डिसलाइटी , पॉलिसी , गवर्नमेंट , इंग्लिश , एक्ट , एडिटर।
भारतेंदु की नाट्य भाषा –
भारतेंदु की नाट्य भाषा संवाद की अपेक्षाओं से निर्मित है। संवाद के माध्यम से वह नाट्य – चेतना एवं नाट्य – यथार्थ को प्रेक्षक को संप्रेषित करते हैं। भारत दुर्दशा में प्रतीकात्मक प्रयोग के बावजूद समझ में आने वाले संवाद हैं , और प्रेक्षक सरलता से समझ जाता है कि नाटककार का गंतव्य क्या है। पात्रों की चरित्रगत विशेषताओं को उभार कर स्पष्ट करने की शक्ति भारत दुर्दशा नाटक में विद्यमान है।
मदिरा ( नाटक की पात्र ) –
” भगवान सोम की मैं कन्या हूं , प्रथम वेदों ने मुझे मधु नाम से आदर दिया , फिर देवताओं की प्रिया होने से मैं सूरा कहलाई। ”
जिज्ञासा उत्पन्न करने की शक्ति इस नाटक के संवादों की अपनी एक अलग विशेषता है। तीसरे अंक के प्रारंभ में भारत दुर्देव का यह कथन –
” कहां गया भारत मुर्ख देखो तो अभी इसकी क्या – क्या दुर्दशा होती है। “
दर्शक पाठक के मन में जिज्ञासा उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त है।
लोकोक्ति एवं मुहावरे –
भाषा को प्रौढ़ता प्रदान कर कवि नाटक को समाज से जोड़ने का कार्य करता है। भारतेंदु ने अपने अन्य नाटकों की भांति इस नाटक में भी लोकोक्ति एवं मुहावरों का सहज प्रयोग किया है जैसे –
मोटा भाई बनकर लूटना।
हाथी के खाए कैच होना।
एक जिंदगी हजार नयामक।
भाषा को सशक्तता एवं प्रमाणिकता प्रदान करने के लिए इस नाटक में अनेक स्थानों पर सूक्तियों एवं धार्मिक ग्रंथों की चौपाईयां दोहे का भी सहारा लिया गया है सूक्ति –
” आलस पड़े कुंए में वही चैन है।
जो भी बर्तन जो भी मर्तन जो ना पड़ता
वह भी मर्तन दांत काटकर काहे कर्तन।
धार्मिक सूक्ति –
इंद्रजीत संग जो कहूं ढांका सो सब जन दही खड़ी करी राखा।
” बहुत बुझाई तुम्हीं का कहहूं परम चतुर में जानत अहं। “
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Shiri Kant barma -Magdh k log or budhapool kavita ki viyakhya chahiy or Maya drpad, tisra Rastafarian kavita ki viyakhya