भारतीय नाट्य सिद्धांत bhartiya naatya siddhant

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भारतीय नाट्य सिद्धांत

 

रस

( नोट – यह नोट्स संक्षेप में विंदुवार लिखा जा रहा है विस्तृत रूप से अध्ययन करने के लिए ” नाटक रंगमंच ” कैटेगरी में देखें )

 

  • प्राचीन काव्य शास्त्र के अनुसार आरंभ में साहित्य का आरंभ नाटक के लिए हुआ था।
  • रस के प्रथम कवि भरतमुनि है।

” विभावानुभावसंयोगाद्रसनिष्पत्ति “

  • विभाव , अनुभाव , संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति मानी जाती है।
  • जब तीनों भाव स्थाई भावों से मिलता है तो रस की निष्पत्ति होती है।
हिंदी रंगमंच , भारतीय नाट्य सिद्धांत

स्थाई भाव –

सहृदय के हृदय में जो मनोविकार , वासना के रूप में सदैव विद्यमान रहते हैं , उन्हें स्थाई भाव कहते हैं। यह रस का मूल भाव है और संस्कार रूप में हृदय में विद्यमान रहता है। इनकी संख्या 9 मानी जाती है।

स्थाई भाव                        रस
रति                             श्रृंगार रस

उत्साह                          वीर रस

क्रोध                           रौद्र रस

भय                             भयानक रस

घृणा जुगुप्सा                    वीभत्स रस

शोक                            करुण रस

हास                             हास्य रस

विस्मय                          अद्भुत रस

निर्वेद                            शांत रस

 

 

विभाव –

विभाव दो प्रकार के माने जाते हैं  –  १ आलंबन  , २ उद्दीपन

आलंबन  – जिन पात्रों का आलंबन करके सहृदय के स्थाई भाव रस रूप में परिणत होते हैं , उसे आलंबन विभाव कहते हैं। इसके दो भेद माने गए हैं –
१ विषय  – जिसके प्रति बाह्य भाव जागृत हो।
२ आश्रय  – जिसके हृदय में जागृत हो।

 

उद्दीपन विभाव –

जो रस को उद्वेलित करते हैं और बढ़ाते हैं वह उद्दीपन विभाव कहलाते है। यह दो प्रकार के स्वीकार किए गए हैं –

१ आंतरिक चेतना –  वेशभूषा आदि

२ बाह्य चेतना – वातावरण आदि

 

अनुभाव –

स्थाई भावों को प्रकाशित करने वाली वाली चेतना अनुभव कहलाती है। ‘अनु’ मतलब पीछे अर्थात स्थाई भावों के बाद में उत्पन्न होने वाले भाव अनुभव कहलाते हैं। अनुभव चार प्रकार के हैं –
१ आंगिक अनुभाव  – शारीरिक चेष्टाएँ
२ वाचिक अनुभाव  – बातचीत
३ आहार्य अनुभाव  – वेशभूषा
४ सात्विक अनुभाव  – तीनों का मन पर प्रभाव डालना सात्विक अनुभाव कहलाता है।

  • जो रस का अनुभव कर आए वह अनुभाव है।

 

व्यभिचारी संचारी भाव

संचारी भाव का अर्थ है साथ – साथ चलना , यह स्थाई भाव की पुष्टि के लिए संचरणशील होते हैं। यह पानी के बुलबुलों के समान प्रस्तुत होते हैं और शीघ्र लुप्त हो जाते हैं। इनकी संख्या 33 मानी गई है , निर्वेद , स्मृति , मोह , आवेग , श्रय ,आलस्य , हर्ष  , यति , ग्लानि , शंका आदि

 

नाटक की व्युत्पत्ति आचर्यों की परिभाषा

” काव्येषु नाटकं रम्यम “

  • सामाजिक के मन में तद अनुरूप अनुभूति जगाने में समर्थ होती है।
  • कवि की वाणी द्वारा की गई अभिव्यक्ति को संकेतों , मुद्राओं , चेष्टाओं , सज्जाओं , अन्य उपकरणों द्वारा मूर्त रूप में आंखों के सामने ला देना दृश्य काव्य कहलाता है।
  • नाट्यशास्त्र  – ” समस्त ज्ञान , विद्या , कला और योग आदि के संगम रूप नाटक में तीनों लोकों के भाव का अनुकीर्तन होता है। “
  • कालिदास  – ” सातों द्वीपों के वासियों , देवताओं , ऋषियों , राजाओं और कुटुम्बियों के कार्यों का अनुकरण जहां देखने को मिलता है वही नाटक है।
  • धनंजय  – ने नाटक के दो भेद माने हैं नृत ताल आश्रित , नृत्य भाव आश्रित। जीवन की विभिन्न अनुकृति उपस्थित करने वाला दृश्य काव्य नाटक कहलाता है।
  • विश्वनाथ  – ” रूपक का अभिनय होता है , जिसमें जगत की विभिन्न अवस्थाओं का अनुकरण होता है। रूपक और नाटक पर्याय है

भारत ने रूपक में रस की निष्पत्ति आवश्यक मानी है।”

  • डॉ रिजवी  – ने भारत में नाटकों का उदय मृतक पूजा से माना है , प्रारंभिक काल में आत्माओं की प्रसन्नता के लिए यही गीत नाटक आदि का आयोजन हुआ था।

आदिकाल में ( रामायण ) सुग्रीव व तारा कुशल पात्र है , राम विवाह में नट – नर्तक का आयोजन , रावण नाट्यशास्त्र का प्रकांड पंडित था।

  • पिशल – भारतीय नाटकों का मूल कठपुतलियों से माना जाता है।
    माया सुर की कन्या के पास ऐसी कठपुतली थी जो नाचती – गाती और हवा में उड़ जाती थी।

 

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कविता
देवसेना का गीत जयशंकर प्रसाद।आह वेदना मिली विदाई।
गीत फरोश भवानी प्रसाद मिश्र।geet farosh bhwani prsad mishr | जी हाँ हुज़ूर में गीत बेचता हूँ

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