बादलों को घिरते देखा कविता और उसकी पूरी व्याख्या
badlon ko ghirte dekha hai नागार्जुन
नागार्जुन का पूरा नाम वैद्यनाथ मिश्र ‘ यात्री ‘ है। उनका जन्म सन 1911 में बिहार प्रांत के दरभंगा जिले के तरौनी नामक गांव में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा परंपरागत रूप से संस्कृत में हुई। बाद में उन्होंने काशी से शास्त्री एवं कोलकाता से साहित्य आचार्य के उपाधियां प्राप्त की । वह बहुभाषाविद् थे मातृभाषा मैथिली के अतिरिक्त संस्कृत , पाली , प्राकृत , अपभ्रंश , सिंहली , मराठी , गुजराती , बंगाली आदि अनेक भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे।
काव्यसंग्रह – युगधारा , सतरंगे पंखों वाली , प्यासी पथराई आंखें , तालाब की मछलियां , भसमंकूर , तुमने कहा था , खिचड़ी विप्लव देखा हमने , हजार-हजार बाहों वाली , पत्रहीन नग्न गाछ।
उपन्यास – पारो , नवतुरिया , बलचनमा , रतिनाथ की चाची , नई पौध , बाबा बटेसरनाथ , अमरतिया , जमुनिया के बाबा , अभिनंदन।
लघु प्रबंध – एक व्यक्ति : एक युग।
संस्कृत रचनाएं – धर्मलोक शतकम , देश देशकम।
अनुवाद – मेघदूत का पद्यानुवाद , गीत गोविंदी और विद्यापति के गीतों का बंगला अनुवाद।
बाल साहित्य – सयानी कोयल , तीन अहदी , प्रेमचंद , अयोध्या का राजा , धीर विक्रम।
हिंदी के प्रगतिशील काव्य साहित्य में कवि नागार्जुन का विशेष योगदान है। आरंभ में प्रगतिशील काव्य एक व्यापक साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का काव्य था। कालांतर में समाजवादी विचारों के प्रभाव से वह साम्राज्यवादी शोषण से मुक्ति के साथ – साथ सामंतवादी , पूंजीवादी जैसे अन्य सभी प्रकार के शोषण मुक्ति आंदोलन से जुड़े रहे , इसलिए नागार्जुन जब विस्फोटक क्रोध में होते हैं , तब ‘ विज्ञापन सुंदरी ‘ और ‘ उन्मत्त प्रदर्शन ‘ जैसी व्यंग्य कविता लिखते हैं।
वह काव्य के किसी आंदोलन की सीमाओं में नहीं बंधे। हलाकि वामपंथी विचारधारा का उन पर प्रभाव पड़ा , पर जहां कहीं वामपंथ शोषितों के आगे आया उन्होंने उसे भी फटकार दी। मूल रूप से नागार्जुन उपेक्षित , दलितों और शोषित समुदाय के पक्षधर रहे हैं। भ्रष्टाचार , आडंबर , सांप्रदायिकता के प्रति उनके काव्य में तीव्र आक्रोश झलकता है। उनका काव्य उनका भोगा हुआ यथार्थ है। उनमें अनुभूति की प्रमाणिकता है। यह यथार्थवाद बौद्धिक नहीं है , उसमें उनका भावबोध उनका रागात्मक अंत:संसार पूरी तरह विद्यमान है। नागार्जुन अपने जीवन में प्रकृति से अनेक स्वरों पर उत्प्रेरित होते हैं।
अपने परिवेश से दूर लंका वास के दिनों में जब नागार्जुन अपनी पत्नी का सिंदूर तिलकित भाल याद करते हैं। तब उस प्रणय भाव में परिवेश का मोह अधिक व्यक्त होता है। प्रकृति और मानव समाज के बीच यह भाव एक प्रतीक बन जाता है ,जो जनपद , परिवार और देश के प्रति प्रेम को एक समग्र रागात्मक में बांधने वाला अंत:सूत्र है। अपने संपूर्ण यायावरी के बावजूद भी दायित्व बोध से संपन्न है। वह बहुत दिनों के बाद जब अपने गांव जाते हैं तो जी भर कर पक्की सुनहरी फसलों की मुस्कान देखते हैं अपनी गवही पगडंडी कि चंदन वर्णित धूल छूकर अपूर्व कृतार्थ अनुभव करते हैं। बादलों को घिरते देखा है , शरद पूर्णिमा , जैसी कविताएं उनकी प्रकृति प्रेम के उदाहरण है।
नागार्जुन जनभाषा के सशक्त प्रयोगशील कवि हैं। भाषा विन्यास में कबीर के अकड़न का प्रभावशाली प्रयोग मिलता है उसमें व्यंग है , मुहावरे हैं और कहीं-कहीं सपाट बयानबाजी की इमानदारी है। नागार्जुन शास्त्र और लोक दोनों में सिद्धहस्त होने के कारण शब्द शक्ति , बिंब आदि के उनका परिचय हैं।
नागार्जुन की प्रणयपरक रचनाएं , प्रकृति चित्र और आंचलिक झलकियां हिंदी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। उनके व्यंग्य पैने हैं। ग्रामीण संस्कृति को सुरक्षित रखते हुए उन्होंने दलित , पीड़ित , शोषित समाज की अनुभूतियों को मुखरित किया है। उनका कथा साहित्य भारतीय सामाजिक चेतना के समग्र बोध को चित्रित करता है। कुछ अपवादों को छोड़कर उनकी अभिव्यक्ति प्रमाणिक और ईमानदार रही है।
डॉक्टर नामवर सिंह कवि का मूल्यांकन करते समय नागार्जुन की गिनती ना तो प्रयोगशील कवियों में होती है , ना नई कविता के प्रसंग में , फिर भी कविता के रूप संबंधी जितने प्रयोग अकेले नागार्जुन ने किए हैं वह तो नहीं शायद ही किसी ने किए हो। कविता की उठान तो कोई नागार्जुन से सीखे और नाटकीय था मैं तो वे जैसे लाजवाब ही हैं जैसे सिद्धि छंदों में वैसा ही अधिकार बेछंद या छंदमुक्त की कविता पर उनके बात करने के हजार ढंग है। और भाषा में भी बोली के ठेठ शब्दों से लेकर संस्कृत की संस्कारी पदावली तक इतने इस तरह की कोई भी अभिभूत हो सकता है। कह सकते हैं कि हिंदी साहित्य में नागार्जुन सही अर्थों में भारत के प्रतिनिधि जनकवि हैं।
बादलों को घिरते देखा
अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,बादल को घिरते देखा है।
तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त-मधुर विषतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।बादल को घिरते देखा है।
ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा-काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान् सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।बादल को घिरते देखा है।
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
दुर्गम बर्फानी घाटी में
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है,बादल को घिरते देखा है।
कहाँ गय धनपति कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत किन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल
मुखरित देवदारु कनन में,
शोणित धवल भोज पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों की कुंतल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि खचित कलामय
पान पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपटी पर,
नरम निदाग बाल कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अँगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है।बादलों को घिरते देखा है।
बादलों को घिरते देखा व्याख्या /पृष्ठभूमि –
नागार्जुन स्वभाव से घुमक्कड़ प्रवृत्ति के व्यक्ति थे वह कहीं एक जगह टिककर नहीं रहा करते थे।नागार्जुन जगह – जगह भ्रमण करते और उस यात्रा को जी भर कर जीते थे , महसूस करते थे।उन अनुभवों को पनी कविता का अंग बनाते थे। वह भारत ही नहीं अपितु आसपास के देशों तक भ्रमण कर आए थे श्रीलंका , नेपाल , भूटान , म्यांमार मैं तो घूमने ही साथ ही उन्होंने हिंदुस्तान के लगभग समस्त भागों का भी भ्रमण किया। किसी यात्रा में वह हिमालय के दुर्गम चोटियों पर पहुंच गए , वहां जो उन्होंने महसूस किया जिस अनुभूति को ग्रहण किया वह अपनी कविता में प्रकट किया है। बादलों को घिरते देखा है कविता में कवि ने वहां के सुक्ष्म अनुभूतियों की अभिव्यक्ति की है।
व्याख्या – बादलों को घिरते देखा है
अमल धवल गिरि के …………………………………………………………….. बादलों को घिरते देखा है।
कवि कहता है कि मैंने अपने आंखों से स्वयं अमल धवल अर्थात स्वच्छ उज्जवल हिमालय के शिखरों पर बादलों को घिरते देखा है। उन्हें पानी से बादल बनते देखा है , जैसे छोटे – छोटे मोती के करण होते है ठीक उसी प्रकार हिमालय प्रतीत होते हैं। उनके शीतल तुहिन कर्ण मानसरोवर के सोने जैसे कमलों पर गिरते देखा है। मैंने बादलों को घिरते देखा है। हिमालय पर्वत की चोटियों पर बादलों की सुंदरता देखी है। छोटे-छोटे ओस की बूंदों के समान मोतियों जैसे रूप को देखा है जो मानसरोवर के स्वर्ण रूपी कलश में गिरते बहुत सुंदर आकर्षक स्वरूप को अपनी आंखों से देखा है महसूस किया है। इस तरह बरसते बादलों का दृश्य अत्यंत ही मनोरम और आकर्षक होता है। ऐसे सौंदर्य मैंने बार बार अनुभव किया अपनी आँखों से देखा।
विशेष –
- सांस्कृतिक शैली/ कलासिक शैली
- प्रकृति का आँखों देखा वर्णन
- शब्द बिम्ब का प्रयोग
- अभिधा / लक्षणा शब्द शक्ति का प्रयोग।
तुंग हिमालय के ………………………………………………………. बादलों को घिरते देखा है।
ऊंची हिमालय रूपी कंधों पर छोटी बड़ी कई झीलें मौजूद हैं। जिसमें श्यामल नील सलिल में उसके खूबसूरत जलाशयों में दूर देशों से आकर अर्थात मैदानी भागों से आकर अकुलाई हुई उमस गर्मी में परेशान हंसों को खेलते , प्रणय करते देखा है।व्याकुल राजहंस जो मैदानी भागों से उड़कर आते हैं वह झीलों में तैरते हुए मीठे कसैले विष तंतु को खोजते है। बादलों को गिरते देखा है। कवि कहता है हिमालय की ऊंची ऊंची चोटियों पर जो निर्मल स्वच्छ कल कल बहती हुई झीलें व नदियां हैं उस उसमें दूर देशों से गर्मी से परेशान हंस-हंस उनको उसमें तैरते और मस्ती करते हुए स्वयं अपनी आंखों से देखा है उसकी अनुभूति की है किस प्रकार वह जी भर कर यहां जीवन जीते हैं उसको महसूस किया है। राज हंसों के उपरोक्त कृत्य से हिमालय की सुंदरता और भी अधिक बढ़ जाती है।
विशेष –
- प्रकृति का प्रतीकात्मक रूप का चित्तरण किया गया है।
- शब्द बिम्ब का प्रयोग है
- माधुर्य गुण है।
- मानवीकरण अलंकार का प्रयोग है।
- तत्सम शब्द प्रधान
- भाषा सरल।
ऋतू बसंत का सुप्रभात ……………………………………………………….. बादलों को घिरते देखा है ।
कवी कहते हैं बसंत ऋतु का सुबह है मंद – मंद हवा बह रही है .सूर्योदय की प्रथम मृदु किरणें जो सूर्योदय की प्रथम लाली होती है वह इस शिखर पर पडते ही स्वर्ण कलश की अनुभूति करा रही है। यहां चकवा – चकवी के प्रेम रूपी क्रंदन को पानी के हरी – हरी सतहों पर छिड़ते देखा है। जो चकवा – चकवी रात को बिछड़ जाते हैं और सुबह निकलने पर अपने प्रेम की अभिव्यक्ति करते हैं। उस प्रेम की अभिव्यक्ति को मैंने स्वयं अपनी आंखों से देखा है। उस सरोवर में उनके प्रणय कलह को छिड़ते देखा है।
ठीक उसी प्रकार मैंने बादलों को घिरते देखा है जिस प्रकार चकवा – चकवी का प्रणय प्रसंग छिड़ता है।
विशेष –
- मंद मंद में वीप्सा अलंकार
- अगल -बगल में पुनरुक्ति अलंकार
- हरी दरी में दृश्य योजना
- प्रकृति का प्रतीकात्मक रूप का चित्तरण किया गया है।
- शब्द बिम्ब का प्रयोग है
- माधुर्य गुण है।
- मानवीकरण अलंकार का प्रयोग है।
- तत्सम शब्द प्रधान
- भाषा सरल।
दुर्गम बर्फानी घाटी …………………………………………………………………………… बादलों को घिरते देखा है।
दुर्गम बर्फानी (हिमालय) की घाटी में सैकड़ों हजारों फीट की ऊंचाई पर जो दिखाई ना दे उस नाभि से उठने वाले निज उन्माद सुगंध के पीछे प्रभावित होकर मृग को भागते खोज करते देखा है। अर्थात कवि कहना चाहते हैं कि दुर्गम वर्फानी की चोटी पर भी उन्होंने युवा मृग को वहां मौजूद देखा है , जो दिव्य सुगंध की खोज में इधर से उधर भागता फिरता रहता है। कहने का तातपर्य यह है कि कई बार अपना ही सौंदर्य अपनी ही मस्ती और अपनी ही मादकता तथा व्यक्तिक अपने ही लिए प्रश्नात्मक चिढ बन जाता है। इस तरह मैंने जीवन रूपी आकाश पर मुग्धता के अनजाने बादलों को घिर – घिर आते अनुभव किया है अपनी आँखों से देखा है।
विशेष –
- कस्तूरी सुगंध की खोज का सादृश्य वर्णन।
- वर्णात्मक शैली
- कोमलकांत शब्दावली का प्रयोग।
- प्रकृति का प्रतीकात्मक रूप का चित्तरण किया गया है।
- शब्द बिम्ब का प्रयोग है
- माधुर्य गुण है।
- मानवीकरण अलंकार का प्रयोग है।
- तत्सम शब्द प्रधान
- भाषा सरल।
कहाँ गए धनपति ………………………………………………………………………………………… बादलों को घिरते देखा है ।
कवि कहते हैं कि मैं यहां पर आया किंतु ना यहां धन कुबेर का कोई नगरी है और नहीं अलकापुरी राज्य है। कालिदास का क्या ठिकाना उसका कोई अता-पता नहीं है , जिसने विद्योत्तमा के विरह में मेघों को दूत बनाकर भेजा था वह दूत हो सकते हैं यही पर बरस गए होंगे। यहां का पता पाकर यहां से कहीं और नहीं गए होंगे। मगर इसका कौन ठिकाना कौन इसकी जानकारी कराएं ? और हो सकता है वह एक कल्पना हो। कवी कहते हैं जाने दो वह कवि कल्पित था अर्थात वह कवि की कल्पना हो सकती है।
मैंने तो किंतु यहां पर स्वयं महसूस किया है यहां मेघों को गरज-गरज कर गिरते देखा है गगनचुंबी कैलाश पर्वत के शिखरों पर मेघों को बरसते देखा है। भीषण दृश्यों को मैंने स्वयं महसूस किया है। अभिप्राय यह है कि कल्पनायें हम कितनी ऊँची सुन्दर और मोहक करें पर सत्य तो यही है , जिसे व्यवहार जगत में अनुभव किया जा सकता है वह सत्य मधुर नहीं होता उसमे कड़वाहट होती है।
विशेष –
- कालिदास के जीवन का अंश
- प्रकृति चित्रण
- कवि के अनुसार सुंदरता का जन्म धरती से ही हुआ है।
- प्रकृति का प्रतीकात्मक रूप का चित्तरण किया गया है।
- शब्द बिम्ब का प्रयोग है
- माधुर्य गुण है।
- मानवीकरण अलंकार का प्रयोग है।
- तत्सम शब्द प्रधान
- भाषा सरल।
शत – शत निर्झर ……………………………………………………………………………………… बादलों को घिरते देखा है ।
कवि कहते हैं कि यहां झरने नदी आदि देवदारु के घने वन जंगल है भोज पत्रों की कुटिया बनी हुई , जिसमें झरनों की कलकल धारा प्रवाहित होती रहती है। यहां पर रहने वाले उन सभी लोग जो सुगंधित फूलों से सिंगार किए हुए इंद्रनील की माला डाले शंख जैसे सुंदर गालों पर कुंडल लटकाए बालों में जुड़ा किए हुए रजत मणि जैसे सुगंधित मदिरा का पान किए लोग घूमते रहते हैं।लोहित चंदन की तिलपट्टी पर निर्विरोध बाल कस्तूरी आसन मुद्रा में बैठे हुए प्रतीत होते हैं , जो मृत के छालों पर आसन लगा कर बैठे हैं। यहां किन्नर – किन्नरियां मदिरा के नशे में उन्माद होकर घूमते – फिरते जश्न मनाते देखा है। मैंने स्वयं बादलों को घिरते देखा है उसे महसूस किया है .
विशेष –
- हिमालय की प्राकृतिक छठा का वर्णन।
- प्रकृति का प्रतीकात्मक रूप का चित्तरण किया गया है।
- किन्नर – किन्नरियां की वेश भूषा रहन सहन आदि का वर्णन
- शब्द बिम्ब का प्रयोग है
- माधुर्य गुण है।
- तत्सम शब्द प्रधान
- भाषा सरल।
अन्य विशेष शब्द –
” छोटे-छोटे मोती जैसे “ – उपमा अलंकार मोती के समान
बालारुण – प्रभात की प्रथम किरणें
तुंग – ऊंची
अमल धवल – स्वच्छ उज्जवल
स्वर्णाभा – सोने की आभा से युक्त
शैवाल – पानी की सतह
प्रणय कलह – प्रेम रूपी झगड़ा
शत – सहस्त्र – सैकड़ों-हजारों
परिमल – सुगंध
अलका राज्य – अलकापुरी
व्योम प्रवाहित – विद्योत्तमा के लिए भेजा गया संदेश
निर्झर निर्झरिणी – झरनों नदियां
शत-शत निर्झर निर्झरिणी – संस्कृत निष्ठ तत्सम शब्द
द्राक्षासव – मदिरा
लोहित – लाल
सारांश –
समग्रतः नागार्जुन घुमक्कड़ प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। बादलों को घिरते देखा है कविता में कवि ने अपने मानसरोवर यात्रा के दौरान की स्मृतियों को उकेरा है , जिसमें वह दुर्गम घाटियों में पहुंच जाने के उपरांत वहां पर जो मनोरम दृश्य देखा। उस सुंदरता उस अतुलनीय उदाहरण को इस कविता में व्यक्त किया है। उन्होंने छोटे-छोटे ओस के सम्मान बादलों को वहां देखा उन मानसरोवर पर अनेकों स्वच्छ व कल-कल बहती हुई नदी व झरनों को देखा। उसके अंदर हंस के झुंड को जो उमस और गर्मी से परेशान होकर वहां पर आई हुई थी उन सभी को वहां पर खेलते और जीते हुए आनंद करते हुए वहां देखा। नागार्जुन ने वहां की सुंदरता का भी वर्णन किया है। किस प्रकार वहां सूर्योदय होने के उपरांत वहां का दृश्य परिवर्तित हो जाता है। सभी पर्वत पहाड़ स्वर्ण कलश की आभा से युक्त नजर आते हैं। उसको उन्होंने आंखों देखी वर्णन किया है , किस प्रकार चकवा – चकवी रात को बिछड़ जाते हैं और दिन होने पर दोनों मिलते हैं और अपना प्रणय कलह छेड़ते हैं। उस सूक्ष्म और अनूठे अनुभव को कवि ने इस कविता में समाहित किया है।
कवि ने हजारों फीट ऊपर पहाड़ पर मृग को उस दिव्य सुगंध की खोज में चिढ़ते और भागते देखा है। जो कस्तूरी की दिव्य सुगंध उसके नाभि में बसती है किंतु उस खोज में मृग भागा फिरता है। उस दृश्य को साक्षात कवि ने देखा है। बादलों को घिरते देखा है। कवी यह भी कहते हैं कि मैं मानसरोवर में आया किंतु ना यहां पर अलकापुरी राज्य मिला ना वह धनपति कुबेर का राजा जो कालिदास ने अपनी विद्योत्तमा को संदेश बादलों के द्वारा भेजा था। वह बादल कहां है शायद वह यहीं बरस गए होंगे , किंतु कवी यह भी कहते हैं कि हो सकता है कि यह बात उस कवि की कल्पना होगी। इसलिए कहते हैं जाने दो वह कभी कल्पित था मगर मैंने तो जो अपनी आंखों से यहां महसूस किया है। वह वास्तविक है बादलों को आपस में लड़ते भिड़ते गरजते और बरसते देखा है। यह मेरी कल्पना नहीं यह साक्षात वर्णन है।
कवि ने वहां के निवासियों और वहां के सौंदर्य का भी वर्णन किया है कि किस प्रकार यहां पर नदियां झर- झर कल – कल करके बहती है। यहां किस प्रकार के देवदारु के वन हैं और यह किस प्रकार लोग अपना निवास कुटिया बनाकर भोज पत्रों से करते हैं। उस दिव्य रंग-बिरंगे सुगंध फूलों से निकली मनोरम खुशबू को महसूस किया है और जो वहां के निवासियों ने अपने साथ सिंगार किए हैं। वह अनूठा है यहां के लोग मृग छाल पर पालती मारकर मुद्रा आसन में बैठते हैं और योग करते हैं तपस्या करते हैं यहां किन्नर – किन्नरियां मदिरा के नशे में कोमल – कोमल उंगलियों से बंसी बजाते और नाचते गाते देखा है। मैंने स्वयं बादलों को घिरते देखा है।
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Main first time hindivibhag par aaya khushi huyi Bahut achha prayas aapne ek naye andaaz se hindi ke liye kuch karne ka socha hai .congratulation
Bahut bahut shukriya bhai
बेहतरीन कविता है और उससे भी बेहतरीन बात यह लगी कि आप लोगों ने बहुत अच्छी व्याख्या लिखी है मेरी बहुत मदद हुई धन्यवाद
Wow nice bhut khub aap ne bhut achi vakkaya ki … Bhut acha bhut khub ….
Good