निर्देशक के कार्य और भूमिका
प्रस्तुतीकरण का मूल संयोजक निर्देशक होता है।
रंग निर्देशन बहुत महत्वपूर्ण कार्य माना जाता है।
निर्देशक नाटक के प्रस्तुतीकरण का प्रमुख रंगकर्मी होता है।
नाटककार जिस नाटक को शब्दों में आकार देता है , निर्देशक उसी का रंगमंचीय आलेख तैयार करता है।
नाटक के प्रस्तुतीकरण के लिए रंगलिपि तैयार करना निर्देशक का प्राथमिक कार्य है।
निर्देशक रंगभूमि का निरीक्षण करता है। जहां नाटक होना है , नाटक के शब्द सृष्टि , दृश्य बंध , रंग सज्जा , ध्वनि प्रभाव आदि रंग शिल्प तत्वों को संयोजित करता है।
निर्देशक नाटक के कृतित्व से संपादन करता है।
नाटककार का रंगमंच से जितना कम संबंध होता है , उतना ही अधिक निर्देशक का संबंध रंगमंच से होता है।
निर्देशक कभी – कभी आवश्यकता अनुसार कथोपकथन को काट – छांट भी कर सकता है , परंतु उसे बदल नहीं सकता। यदि दर्शक की भावना को ठेस लगता है तो , निर्देशक रंग – प्रभाव की दृष्टि से सुधार भी कर सकता है।
इस अनुसार निर्देशक नाटक का संपादन करता है , वह रंगावृत्ति , रंगलिपि तैयार करता है।
निर्देशक नाटक का पूर्व अभ्यास के दौरान रंग – लिपि को सुधारता संवारता है।
अतः हमें एक अच्छे नाटक की अनुभूति का अवसर मिल पाता है।
निर्देशक के बहुत सारे कार्य होते हैं , जैसे अभिनेता को निर्देश देना तथा विभिन्न अभिनेताओं को एक सूत्रता में बांधना आदि संपूर्ण कार्य निर्देशक ही करता है।
निर्देशक कलाकारों को उनका अभिनय बांटता है , तदुपरांत पूर्वाभ्यास में सजाता संवारता है।
निर्देशक रंगमंच पर अभिनेताओं के प्रवेश , स्थान , सामूहिकरण आदि का नियंत्रण करता है।
अभिनेता की भाषण कला अर्थात स्वर के उतार-चढ़ाव प्रवाह , बुलंदी , परिवर्तनों का नियंत्रण भी करता है।
निर्देशक ही पात्रों की गति व रंग – शिल्प को प्रभावशाली एवं अर्थवान बनाता है।
अभिनेताओं के अतिरिक्त रंगमंच के विविध अन्य रंगकर्मियों को भी निर्देश देता है।
निर्देशक अपने रंगकर्मियों को अनुशासन में रखता है , व सामंजस्य बनाए रखता है। नहीं तो रंगमंचियत्ता पर प्रभाव पड़ता है।
रंग प्रयोग में यह देखा जाता है कि , एक कुशल निर्देशक दुर्बल नाटक की प्रस्तुति को भी प्रभावशाली बना देता है। जबकि अकुशल निर्देशक प्राणवान नाटक को भी प्रभावपूर्ण नहीं बना पाता।
निर्देशक का कार्य निश्चित तौर पर एक जटिल कार्य है , उसके लिए गहरी साधना करनी पड़ती है।
निर्देशक को साहित्य , संगीत , नृत्य , वस्तु कला आदि कलाओं के मर्म से अवगत होना चाहिए। उसे रंगमंच के सभी उपकरणों और प्रयोगों को भली-भांति समझना चाहिए।
नाटककार के भाव को समझने की कुशलता निर्देशक में होनी चाहिए , तभी वह नाटक के प्रस्तुतीकरण के साथ न्याय कर सकता है अन्यथा नहीं।
अभिनय रंग – सज्जाकारों और उनकी रचना , रंगदीपकार और प्रकाश योजना , ध्वनि प्रभाव , यंत्रों का प्रयोग , सामूहिकरण और प्रवेश स्थान आदि सभी के बीच संतुलन बनाए रखने में निर्देशक की अहम भूमिका होती है।
निर्देशक की जरा सी चूक या थोड़ा सा मनोरंजन पूरा रंग निर्देश अव्यवस्थित कर सकता है।
( नोट – आपको बता दें कि यह नोट्स आपके काम समय में अधिक ज्ञान ,या परीक्षा के समय संक्षेप में निर्देशक के कार्य पर प्रकाश डालना है। आप इसका लाभ उठा सके इस भावना से यह नोट्स त्यार किया गया है। धन्यवाद। …………………………… हिंदी विभाग )
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