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त्रासदी नाटक संक्षेप परिचय
- अरस्तु ने अपने ग्रंथ में नाटकों पर विशेषकर त्रासदी नाटक पर बहुत विस्तार से विवेचन किया है।
- अरस्तु ने त्रासदी और कौमदी नामक दो भेद माने हैं.
- अरस्तु के अनुसार नाटक काव्य का वह रूप है , जिसमें जीवित , जागृत और चलते-फिरते दृश्य प्रस्तुत किया जाता है।
- त्रासदी का लक्ष्य है यथार्थ जीवन से भव्यतम जीवन का चित्रण। यहां भव्यता का आधार नैतिक है।
- त्रासदी में औसत से उच्चतर मानव जीवन का चित्रण किया जाता है और त्रासदी को श्रेष्ठ काव्य रूप माना जाता है।
- कौमदी का लक्ष्य है , यथार्थ जीवन से ही जीवन का चित्रण।
- अरस्तू ने त्रासदी की परिभाषा इस प्रकार दी है – ” त्रासदी किसी गंभीर स्वतंत्रपूर्ण तथा निश्चित आयाम से युक्त , कार्य की अनुकृति का नाम है। जो नाटक के भिन्न-भिन्न रूपों को अलंकारों को प्रकट करता है। जो समआख्यान रूप ना होकर कार्य व्यापार रूप में होती है और जिसमें करुणा और भय के उद्रेक के द्वारा इन मनोविकारों का उचित विवेचन किया जाता है। “
नाटक में रस की अहम भूमिका होती है –
- रस तत्व भारतीय नाटक का प्रमुख साधन तत्व है , नाट्य विधि का प्राण तत्व रस को कहा गया है।
” रस प्राणों ही नाट्य विधि ”
- नाटक के सारे विधान सारे कार्य – व्यापार सारी पात्र – सृष्टि और दृश्य विधान रसानुभूति कराने के लिए ही अवतरित होती है।
- त्रासदी नाटक पश्चिमी नाट्य सिद्धांत के मूल विचारक अरस्तु की देन है।
- वह लिखते हैं कि त्रासदी में भय और करुणा को उदबुद्ध करके उनका शमन दिखलाया जाता है।
- इस प्रकार भावों के शमन से उत्पन्न शांति का जो रूप प्रकट होता है वह विरेचन है।
- जैसे कोई चिकित्सक पहले औषधि देकर पेट के विकारों को फूलाता है , और फिर उसका शमन करता है। वैसे ही नाटकों में भावों का आवेग जागृत किया जाता है और फिर उन्हें शमन की अवस्था में आते हुए दिखलाया जाता है। इस प्रकार कैथार्सिस या विरेचन भावों की अभिव्यक्ति के द्वारा भावों के विकारों से मुक्ति दिलाने का रूप है।
- वस्तुतः अरस्तु ने सिद्धांत की मूल भावना प्लेटो के कला संबंधी विचारों की विशेष पृष्ठभूमि में की है। प्लेटो एक आमवादी दार्शनिक थे।
- अरस्तु के विरेचन सिद्धांत का मर्म विवृत करते हुए प्रसिद्ध आलोचक ‘ लेसिंग ‘ लिखते हैं कि – ” विरेचन से अरस्तु का अभिप्राय प्रेक्षक के नैतिक सुधार से है , दुखांतकियों में अभिव्यक्त करुणा और अभय के दृश्यों को देखने के पश्चात मनुष्य अपने नैतिक जीवन के प्रति अधिक जागरूक हो जाता है। “
- नैतिक त्रुटि -विचुति के कारण त्रासदी के नायक की विभीषिका को भली प्रकार से देख लेने के बाद दर्शक में नैतिक चेतना के प्रति सजगता आ जाती है , और भाव प्रवणता की ओर से भी दर्शक के मन में विकसित होने लगता है। “
- विरेचन मनुष्य को नैतिक मूल्यों की और अग्रसर करने की प्रवृत्ति का द्योतक है। और मानसिक संतुलन को बनाए रखने की प्रवृत्ति का भी द्योतक है।
- अरस्तु की दृष्टि में विरेचन नैतिक सुधार के सिद्धांत का प्रतिपादक है ऐसा कुछ आलोचक नहीं मानते।
- आलोचक विलियम मैटेनिल डिक्शन के अनुसार – ‘ विरेचन से अरस्तु का अभिप्राय नैतिक सुधार नहीं रहा होगा , अपितु उनका अभिप्राय कलात्मक सौंदर्य के उस अनुभूतिगत आनंद से था , जिससे मानसिक शांति प्राप्त होती है। ‘
- अरस्तु त्रासदी की वस्तु योजना में अंगों के अनुपात , सामंजस्य और संतुलन पर जिस तरह से बल देते हैं और जिस प्रकार नायक के आधार से करुण और भय के भावों को उजागर कर दर्शक के लिए मानसिक प्रशमन सुलभ बनाते हैं , वह वस्तुत कलात्मक सौंदर्य के अनुभूतिजन्य आनंद के लिए ही है।
- अरस्तु के नाटक की पृष्ठभूमि में प्लेटो के कला पर लगे आरोप का उत्तर देना था , जिसमें उन्होंने कला का भाव उत्तेजना पैदा करने का कारण माना था और जिस भावोत्तेजना में बहकर सामान्य नागरिक पथ भ्रष्ट हो जाता है। अरस्तू ने इसी का उत्तर देते हुए यह कहा कि त्रासदी या अन्य कलाओं में भावोत्तेजना मात्र भाव उत्तेजना के लिए नहीं होती है , अपितु उसका लक्ष्य अतिरिक्त भावों से दर्शक को मुक्ति दिलाना होता है। ‘
- कुछ लोग विरेचन सिद्धांत को धर्म से जोड़कर भी देखते हैं और मानते हैं कि विरेचन से अरस्तु का अभिप्राय धर्म दृष्टि का विकास है।
- प्लेटो ( काव्य गुरु ) ने यह कहा था कि त्रासदियों में देवी-देवताओं के चरित्रों को बिगाड़कर अनास्था पैदा की जाती है और मनुष्य की धर्म भावना आहत होती है।
- अरस्तु ने इसके उत्तर में ही विरेचन सिद्धांत की अवधारणा की होगी और यह माना कि यह एक ऐसी नैतिक शक्ति है , जिसे फेट कहते हैं। जो धर्म विरुद्ध आचरण करने वाले को दंडित करने के लिए सजग रहती है।
- त्रासदियों में इसी प्रकार के दंड का विधान किया जाता है , और इसी प्रकार विरेचन सिद्धांत से अभिप्राय धर्म दृष्टि को विकसित करने से है।
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