आलोचना का अर्थ परिभाषा व उसका खतरा | आलोचना के आदर्श व उसके खतरे | Hindi notes
आलोचना का अर्थ
वस्तु के यथार्थ रूप की जिज्ञासा और जानकारी उसके प्रति बौद्धिक तथा मानसिक प्रतिक्रिया चेतन मानव का स्वभाव है | यही वस्तु को समझना समझाना उसके संबंध में निर्णय देना उसकी समीक्षा या आलोचना है| यह दो शब्दों के मेल से बना है आ + लोचन जिसका अर्थ है चारों ओर से सम्यक रूप से देखते हुए जांचना या छानबीन करना | साहित्य रचना का ज्ञान रसास्वादन रसास्वादन परख उसकी उत्पत्ति स्वरूप तथा भेद गुण दोष प्रभाव तथा अन्य प्रकार का मूल्यांकन सभी कुछ है |
परिभाषा
समालोचना की परिभाषा अनेक विद्वानों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से किए
डाइडन – “आलोचना निर्णय का एक मानदंड है जो विचारशील पाठकों को आनंद प्रदान करने वाली साहित्य विशेषता का लेखा-जोखा करती है। यह हमारे तर्क का मूल्य मानदंड है”
मैथ्यू अर्नाल्ड – “सर्वश्रेष्ठ विचारों भावों की खोज करना और उसके रसोई में योगदान देना आलोचना के महत्वपूर्ण कार्य है”
कॉलव्रैज – ” समालोचना का आदर्श काव्य के सौंदर्य पूर्ण अंगो पर पाठक का ध्यान आकृष्ट करना है”
समालोचना का वास्तविक उद्देश्य साहित्य निर्माण के नियमों की सूची बनाना नहीं है
विक्टर थग्गो – ” कोई कलाकृति अच्छी है या बुरी उसकी मीमांशा करना समालोचना का कार्य है ”
टी एस इलियट – ” आलोचना का उद्देश्य किसी वस्तु के मूल्य का निर्णय करना है ”
आलोचना की आवश्यकता और महत्व –
मानव जीवन के साथ साहित्य का गहरा संबंध है| साहित्य में वह जीवनी शक्ति होती है जो समाज में शाश्वत मूल्य की सृजना करती है इसलिए आलोचना का महत्व स्वयं ही बढ़ जाता है | क्योंकि कृति की अवहेलना होने पर यह ही पूर्ण मूल्य संवर्धन करती है| इस प्रकार यह एक और तो साहित्य अराजकता पर नियंत्रण रखती है तो दूसरी और जन रुचि को परिष्कृत कर सत्य साहित्य के प्रचार का मार्ग प्रशस्त करती है| यह जनमानस को सुरुचिपूर्ण बनाती है रचनाओं का पूर्ण रसास्वादन इस प्रकार किया जा सकता है| यह एक और तो साहित्य का उद्घाटन करती है तो दूसरी और उपेक्षित प्रतिरोध, क्या संसार आलोचना में ही स्थान पाता है कभी-कभी यह साहित्य का पथ प्रदर्शक बनकर परामर्श भी देता है । इसका उद्घाटन हिंदी साहित्य के आचार्य महावीर है जिन्होंने न जाने कितने ही कवियों का निर्माण करके उन्हें साहित्य पथ पर लगाया था कभी-कभी प्रतिभाशाली साहित्यकार कलाकार व लोक वृत्ति उपेक्षित रह जाती है आलोचना उन धूल भरे हीरो को उचित स्थान प्रदान करता है।
आलोचना के आदर्श
समीक्षक का कार्य सरल नहीं होता उसे पाठक और लेखक दोनों के प्रति उत्तरदायित्व निभाना पड़ता हे , अतः प्रस्तुत विषय के सर्वांगीण विवेचन के लिए प्रमुख बातों को ३ रूपो में देखा जा सकता हे समीक्षा के अनिवार्य आदर्श से समीक्षक के ऐसे मुलसिद्धांतो से हे जो आदर्श आलोचना के रूप होते हैं समीक्षक की पहली शर्त उसका रस ग्राही पाठक होना चाहिए हमारे यहाँ भवित्री प्रतिभा को किसी कारण प्रमुखता दी गई हे आलोचक को विद्वान सम्पूर्ण शास्त्र तथा कलाओं का ज्ञान लोकव्यवहार विभिन्न भाषा साहित्यों का तुलनात्मक करते है शब्द ज्ञान अर्थ ग्रहण की शंका भाषा व्याकरण छंद आदि सब में पारंगत होना चाहिए ॥
हिंदी आलोचना / समालोचना
हिंदी आलोचना का जन्म मध्य युग में रीती काल से माना जाता है चिंतामणि केशव देव कुलपति आदि अनेक कवियों ने अलंकार रस आदि पर रचनाएं प्रस्तुत कर सैद्धांतिक इसकी नींव डाली। इस का यह रूप पद्य बंद है आधुनिक aalochna का उद्भव भारतेंदु हरिश्चंद्र युग से माना जाता है कवि वचन सुधा और हरिश्चंद्र चंद्रिका में भारतेंदु की समीक्षाएं प्रस्तुत होती है। कादंबरी हिंदी प्रदीप इस के अंतर्गत गुण दोष का वर्णन अधिक मिलता है इसी प्रकृति के लक्षण महावीर प्रसाद द्विवेदी लिखित हिंदी कालिदास समालोचना में भी होते हैं
साहित्यशास्त्र के सिद्धांतों पर प्रकाश डालने वाला पहला लेख अंग प्रसाद अग्निहोत्री महत्व समालोचना था जो 1886 में एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ समीक्षा प्रणाली का ठीक-ठीक विकास सरस्वती पत्रिका के द्वारा हुआ बीसवीं सदी आलोचना के क्षेत्र में मिश्र बंधुओं का नाम विशेष रूप से लेती है उनके हिंदी रचना और मिश्रबंधु उल्लेखनीय है इसी समय पंडित पद्म सिंह शर्मा जी ने बिहारी का अध्ययन प्रस्तुत तुलनात्मक और भावप्रधान इसको जन्म दिया | इस समय की सबसे महत्वपूर्ण और प्रमुख आलोचना पद्धति पंडित रामचंद्र शुक्ल की है उन्होंने तुलसी सूर और जायसी पर अध्ययन प्रस्तुत कर हिंदी समालोचना को एक निश्चित रुप दिया उसकी समालोचना पद्धति में भारतीय और पाश्चात्य दोनों पद्धतियों का समन्वय प्रस्तुत किया |
आलोचना का खतरा
इस का सबसे बड़ा खतरा यह है की प्रसिद्ध होने पर आलोचना ही साहित्य बन जाती है और मूल कृति के विषय में आलोचकों के निर्णय को कुछ इस प्रकार व्यक्त कर सकती है | जिससे खुश प्रीति को सर्वोत्कृष्ट किया निकृष्ट बनाने का खुद जोध समर्थन हो |आलोचकों का मुख्य कर्तव्य पाठक के हृदय में साहित्य के प्रति उत्सुकता और उत्कंठा उत्पन्न करना है , ना कि शिक्षा देना |
अमेरिकी विद्वान ‘ इमासन ‘ के शब्दों में “आलोचना का कार्य शिक्षा देना नहीं है अपितु तेज या उत्साहित करना है ”
उत्तर आधुनिक युग में संभवत है इस का इन्हीं खतरों से बचने के लिए कृति विशेष पढ़कर स्वयं उसका आलोचक बनता है। उसकी राय कृती व साहित्यकार विशेष के संदर्भ में दूसरों से अलग था वह विपरीत भी हो सकता है यह आलोचना के विभिन्न ध्रुव मिलकर ही साहित्य की सार्थकता को सिद्ध करते हैं और मानविय व संस्कृति में अपना योगदान देते हैं। इस के कारण ही अथवा सत आलोचना के अभाव में सैकड़ों व्यक्ति गुटों और मित्रों की सहायता से जल्दी ख्याति पा लेते हैं योग्य व्यक्ति व्यक्ति बहुत ही संघर्ष के बाद धीरे-धीरे मान्यता पाते हैं ।
आज के युग में जब पूंजी का बाजार पड़ा है और प्रकाशकों के पास ज्यादा से ज्यादा बिक्री का उद्देश्य और ज्ञान के माध्यम से अधिक लाभ पाने की कामना है तो आलोचना का उत्तर दायित्व और बढ़ जाता है प्रतिस्पर्धा के इस दौर में एक कृति अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ज्यादा बेचने की होड है उसकी उच्चता का पैमाना अब साहित्य के मूल्य न होकर बिक्री की संख्या हो गई है ।
हैरी पॉटर बड़े अनुपात में छपता है और आलोचना की गरिमा और विज्ञापन का भारी उत्पाद पर हाथों हाथ बिकता है ऐसे युग में आलोचना को एक हिंदी पारदर्शी और सचेत रूप से काम लेना होगा ताकि वह ज्यादा से ज्यादा ऊपर के सामने आए जो सब कल्याण की मार्ग सुलक्षता है रक्षा के लिए प्रयासरत है ।
समीक्षक का कार्य सरल नहीं होता उसे पाठक और लेखक दोनों के प्रति उत्तरदायित्व निभाना पड़ता हे। प्रस्तुत विषय के सर्वांगीण विवेचन के लिए प्रमुख बातों को ३ रूपो में देखा जा सकता हे। समीक्षा के अनिवार्य आदर्श से समीक्षक के ऐसे मुलसिद्धांतो से हे जो आदर्श आलोचना के रूप होते हैं। समीक्षक की पहली शर्त उसका रस ग्राही पाठक होना चाहिए हमारे यहाँ भवित्री प्रतिभा को किसी कारण प्रमुखता दी गई हे आलोचक को विद्वान सम्पूर्ण शास्त्र तथा कलाओं का ज्ञान लोकव्यवहार विभिन्न भाषा साहित्यों का तुलनात्मक करते है शब्द ज्ञान अर्थ ग्रहण की शंका भाषा व्याकरण छंद आदि सब में पारंगत होना चाहिए ॥